एक
सपनों में अक्सर पुलिस आती है
महीनों से
नहीं, नहीं... शायद सालों से
घसीट कर ले जा रही होती है पुलिस
धकेल देती है एक सँकरी कोठरी में
और जैसे ही फटकारती है डंडा
मैं चीख़ पड़ता हूँ
जाग कर उठते हुए
कब से जारी है यह सिलसिला
माँ के खुरदरे और ठंडे हाथ
हथकड़ी से लगते थे उस वक़्त माथे पर
सर्दियों में भी माथे की नमी से जान गया था कि
डर का रंग गीला और गर्म होता है
जलता हुआ चिपचिपा रंग
सपना देखा कोई?
माँ पूछती तो अनसुना कर
टेबुल पर रखी घड़ी की ओर लपकता
दादी कहती थीं कि भोर के सपने सच होते हैं
माँ से कहता था कि मेरे ऊपर हाथ रखके सोया करो
रथ परेशान करते हैं मुझे
माँ कहती थी कि टी.वी. पर महाभारत मत देखा करो
अब मैं माँ को कैसे समझाता कि
रथ में मुझे अर्जुन नहीं दिखते
कृष्ण के हाथ लगाम नहीं होती रथ की
पुलिस दिखती है
जहाँ-जहाँ से गुज़रता है रथ
पुलिस ही पुलिस होती है चारों ओर
मेरी तरफ़ दौड़ती है
नाम पूछती है और दबोच लेती है मुझे।
दो
रीना को भ्रम हो गया है कि
बहुत प्यार करता हूँ मैं उन्हें
हमेशा सोता हूँ उन्हें बाँहों में समेट कर
अब कैसे बताऊँ कि डरता हूँ मैं
इस डर में कोई कैसे प्यार कर सकता है
अकेला हूँ इन दिनों
नहीं, नहीं
सपनों के डर के साथ हूँ
घर के दरवाज़े से नेम प्लेट हटा दी है मैंने
घर में कोई कैलेंडर भी नहीं
सारे निशान मिटा दिए हैं
मेरे नाम को साबित करने वाले
फिर भी आती है पुलिस
सपनों में बार-बार
कई रोज़ हुए, मैं सोया नहीं हूँ
डर का रंग सफ़ेद होता है
नहीं, नहीं! भूरा होता है
बड़े-बूढ़ों से यही सुना था मैंने
लेकिन मेरे घर में तो कई रंगों में मौजूद है डर
कल रात की बात है
जब किसी ने ज़ोर-ज़ोर से पीटा था दरवाज़ा
मैं समझ गया था
डर ख़ाकी रंग में आया है।
- रचनाकार : फ़िरोज़ ख़ान
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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