रुको हे राम,
झूठी मर्यादा की खाल ओढ़े सीतापति,
रुको।
हाँफते हुए जन-सिंधु के दीन स्कंध-शेष पर
आसीन
शांताकार, कमलनयन
हो तुम।
मैं तुम्हें पहचानता हूँ।
रुको,
अपार अंधकार के काले झंडे लिए,
देखो,—
यह कौन है—विरोध करता तुम्हारा;
सम्मुख तुम्हारे ही—
अकेला, अनवद्य, रुद्र, प्रलयंकर
सागर-गर्जन का द-हाड़-ता हुआ
अ ट्ट हा स?
नहीं,
पिता लव-कुश के,
नहीं।
मैं हूँ लौहपाथर चक्रदबी
बहती सभ्यता से ऊपर उठ आया
एक कीड़ा :
मुक्ति दी है मुझे शायद अनजाने
तरंग ने—
पिता लव-कुश के,
तुमने नहीं।
जवाब दो :
हज़ारों आँखों से बेध गया इंद्र
माता अहल्या को।
दे दी अपवित्रता अदेय अपने ‘बज्र' हृदय से।
कौन सा दंड दिया उसे—उस कायर इंद्र को?...
क्या किया उस चंद्रमा का?
जो अरुणचूड़-स्वरों में प्रभात का
करा गया भान पिता गौतम को।
और दे गया एक शाप-मुद्रा प्रस्तरीया—
उन्हें। मुझे। माता अहल्या को!
कौन-सा दंड दिया?
धीरे-वीर, न्याय-निकर,
जवाब दो,
कौन-सा दंड दिया तुमने?
उल्टे इंद्र की प्रतिकृति बना ली दुहरी :
अपने ऊपर तारोंजड़े आकाश
और मणियों सजे नीले जलधि से।
चंद्रमा को भी भेंट की
कालिमा अपनी
प्रसन्न हो।
हे राम,
माता अहल्या को मुक्त किया तुमने
पैरों से रौंदकर?
क्या वह पुल थी?—
जिससे घरघराती नदी
मर्यादा की
पार कर सके थे तुम!
छू सकते थे कमल-करों से भी
उसे :
उस पत्थरित गुमटी को।
मुक्ति के द्वार थे
तुम्हारे वे हाथ भी।
क्या वह असन-वसन-विरक्त
जड़ दिशा भर थी?
—प्राणवंत सत्ता नहीं?
क्या वह केवल भक्तिलीन
मात्र दासी थी?
—अंतर्वत्नी की दुर्दम धारणा नहीं?
मैं हूँ
लव-कुश की परंपरा में जीवित अहल्यापुत्र!
—बजबजाते तुम्हारे मर्यादित प्रवाह से उबरा हुआ कीड़ा।
ओ सीतापति,
झूठे शील की खाल ओढ़े राम,
गल गए बजबजाते प्रवाह में जो,
कंधे दो, हाथ दो, पैर दो,
लय दो, संदर्भ दो अच्युत,
पूरे मनुष्य का समग्र साकल्य दो,
गति दो बँधे क्षीरसागर को,
मुक्ति दो दीन-स्कंध-शेष को।
उतरो ज़मीन पर
मुकुट की तरह स्वीकारो।
‘स्वयंप्रभा समुज्ज्वला' के
पुष्पक दो।
रेंगते-सहते कीड़ा भी
क्षितिज फोड़ बन जाता
सुदर्शनचक्र
जब बेहाथ विष्णु
धृतराष्ट्र में बदल जाता,
च्युत होता।
अच्युत
उतरो ज़मीन पर।
मुक्ति दो।
गति दो।
संदर्भ दो
स्वीकारो
प्रात:-प्रभा
साथ-साथ
आओ ज़मीन पर
अँधेरे में सुई की तरह
ढूँढ़कर भी दिव्य-चक्षु समवर्ती,
कैसे कहते हो नांदी स्वर्ग-नाटक की
मुझे मेरे सूत्रधार,
कैसे मंगल्य शंख फूँक दूँ
इंद्र के सदन में,
कानों ने सुने नहीं मंगल वर्ण तक
प्रतीक्षा में पुरइन हुए महाशमन,
मंगलवाणियाँ कंठ के वलय होकर
झूल गईं झुर्रियाँ
बिखेर दूँ कैसे शची के आँगन में
अपने इंदु की रश्मियाँ!
उजाले पाख तो आए ही नहीं महाकाल,
कमल पर अपने ब्रह्मा को आसन दूँ
किस तरह
कमल वह
असूर्यम्पश्य लिखा
आज तक खिला नहीं।
भसींड़ भर बची हूँ कूँथी हुई।
अंतक, तुम कहते हो, भर दें तड़ाग देव-हृदयों के
अपने कैरव-कदंब से कैसे!
कैसे कहते हो!—
अमर कर दूँ अपने चक्रवाकों से
प्यार की पिपासा को!
सूखे सरोवर पर मिटती हुई संध्या सिमट आई है!
कैसे कहते हो परेतराज,
विशेषणों के बोझ से
संज्ञाहत पड़ी हुई कब से दबी
सह नहीं पाती अब
व्यंजना पर कसे हुए
इतने अलंकार-भार!—
ओ कृतांत, स्वर पारावत हुए।
मैं नहीं नांदी।
नहीं हूँ नारदीया वल्लकी।
पदक्रम की परंपरा भी नहीं मैं
चित्र-विचित्र
उच्चैःश्रवस् की।
छुओ मत मुझे। हटा लो।
हिलते वीणागिरी पिंगल माला-से शीतल हाथ
लौट जाओ यमराज,
लौट जाओ।
मैं स्वर्ग नहीं जाऊँगी।
उर्वशियाँ-मेनकाएँ सब मुझे देख
नृत्य भूल जाएँगी।
ताल-गति-लय जीवन में कहाँ!
कहाँ मेरे जीवन में—
नित्य ही समुद्र-मंथन यहाँ!
कौन-सा पुण्य किया,
अमृत पिया कौन-सा मैंने!
मैं स्वर्ग नहीं जाऊँगी।
मेरे एक आँसू में ऐरावत डूब जाएगा।
इंद्र की हज़ार-हज़ार आँखें बुझ जाएँगी।
छिन जाएगा शची का शारदीय हास।
स्वर्ग प्रलय-अँधियारा बन जाएगा।
मैं स्वर्ग नहीं जाऊँगी।
ब्रह्मर्षि, नहीं हूँ मैं आत्मा नचिकेता की, न ही सावित्री।
क्या करूँगी ब्रह्मविद्या, श्रेय-प्रेय, हिरण्यवह्नि—
जीवन कहीं इनसे भी आगे, है बड़ा है, बृहत्तर है।
क्यों जाऊँ और लौट आऊँ।
क्यों जाऊँ और अधर में लटकी रहूँ।
मेरे सत्यवान को रहने दो मेरे साथ समवर्ती,
ढाक के स्फुलिंग-द्वार कहीं और होंगे।
अग्निमय जीवन यहाँ पकता है।
गुंबदों बीच मैं जलती शिखा नहीं,
रसोई की आँच हूँ।
नित्य है पावक-परीक्षा यहाँ।
समुद्र-मंथन यहाँ नित्य होता है।
मैं अपने राम की छाया नहीं,
धीरज हूँ पृथ्वी का।
पितृपति, कौन-सा ऋतुराज है,
जिसके आते-आते यवांकुर
वसंतकम्र होता है पक कर वानीरवर्ण।
किन नयनों में शरद खिलता और उड़ता।
बनता हे उत्तरोत्तर उज्ज्वलता!
कौन-सी है उदीषा-लोल पुष्करिणी,
जिसमें चुलबुल मछलियों के
होते हैं तरल चमक भरे महारास!
सह नहीं पाती अब
व्यंजना पर कसी हुई
ऐसी विडंबना!
विशेषणों के बोझ दबी
संज्ञाहत
न मैं राधा, न मैं रुक्मिणी, न मैं शकुंतला।
पंचकन्याओं की स्वीकृत कामना लिए
मैं हूँ केवल एक वृत्त में घूमती।
घर के भीतर ‘शंघाई की अँगड़ाई—’
ओ यमुनभाई,
पीतोदक, जग्धतृण, निरिंद्रिय गऊ एक,
देखो, अपने सूक्ष्म तन, उदारचेता ऋत्विज के लिए
अब तक बची हुई—
उड़ेलती स्नेह-बूँदें
नन्हीं इस बाती को
धुआँठ कर भी!
कैंची से भुजाओं फँसा आँचल काट
भागने वाली स्वर्ग की परी मैं नहीं।
अपने सुदामा की महल-अटारी मैं।
फूटी कठौती में परोसती चारों पदारथ मैं।
तोते की छाती-से कोमल महाकाल,
पिंजरे में नहीं रहूँगी
मैं वन जाऊँगी,
पर स्वर्ग नहीं जाऊँगी।
‘सूली ऊपर सेज' बिछाकर
सो जाऊँगी,
पर स्वर्ग नहीं जाऊँगी।
मैं खिंची इस रेखा के आगे नहीं जाऊँगी।
धर्मराज, नहीं डरती तुम्हारे बूढ़े भूरे चंद्रमा ज्यों
भैंसे से,
छलना से डरती हूँ।
जुआ-छल से घबराती।
सहने से नहीं।
श्राद्धदेव समवर्ती, स्वर्ग क्या है
साड़ियों के बढ़ते हुए खिंचते
रंगारंग बहते मिटते
बादलों का भुरभुरा एकांत
नंगे पानी में
स्वर्ग क्या है
इसके सिवा।
मेरी लाज रख लो मेरे हरि
दंडधर!
तुम कहते हो, बर्फ़ हो गई हूँ।
तो क्या, गल जाऊँगी।
तुम कहते, मैं टहनी हूँ।
सुलग जाऊँगी।
“तुम कहते
‘उत्तर-वेला यह’
वैवस्वत, तुम चले आओ।
मुझे मेरे सत्यवान के साथ रहने दो।
अलविदा देवताओ, अलविदा!
देख ली इंद्रसभा :
स्थगित हैं मुद्राएँ।
सिर्फ़ संवेदन झनझनाते हैं,
आत्मा यहाँ कहाँ है?
संवदेन के पुतलो,
तुम्हारे स्वर्ग के
देख लिए प्रिंट
भीगे ऐश्वर्य के।
कैसा है स्वर्ग यह
एक-एक थिरकन में
दिखती हैं नरक की भारी थकानें!
कैसी है मर्मर-ध्वनि
नंदन-कानन की।
पत्ते-पत्ते की आवाज़ यह कैसी है!
दबी-दबी
कितनी-कितनी, किसकी-किसकी
रुँधी हुई सिसकियाँ
हवाओं में
गूँजती हैं मंद-मंद
आती हुई पत्ते-पत्ते से।
भोग के इतने बीहड़ जुगाड़ हेतु
कितने पुरातत्त्व हुए!
पाथर पर रह गए
लकीर भर कितने अनात्म हो
कितने रेंगते।
हिसाब दो।
कल्पवृक्ष यह तुम्हारा
हरहराता है किस तरह।
कितने समुद्रों के कितने
सुगंधित बादलों की खाद कितनी
इसकी पाताल तक गई
जड़ों में डाली गई,
जवाब दो देवताओ!
कामधेनु, सिर्फ़ जो तुम्हारी है,
जुगाली जब करती है,
इस अनवरत महोत्सव के पीछे
चुपचाप चक्कियों की घरघराहटें
हरसिंगार-सी टपकती हैं;
सफ़ेद हो गया ख़ून झाग बनकर रह जाता।
चुप्पी में छिपे कितने-कितने-कितने दर्द के एहसास।
स्वर्ग में तुम्हारे
नरक की कथा
इस तरह निरंतर चलती है।
नृत्य यह बंद कर दो अप्सराओ,
एक बच्चा कहीं नूपुर-सा छिटका पड़ा
पसीने की बूँद-सा ठिठका, खिंचा
‘दूर पेंसिल-रेख-सा'
धीरे-धीरे धुँधलाता,
हवा पर चलती नाड़ी-सा स्वर उसका
यहाँ तक आता।
बंद कर दो नृत्य अप्सराओ,
कहीं किसी रामगिरि पर
अधमरा एक यक्ष
पानी तक के लिए तड़पता।
कितना अनात्मीय हो गया है
तुम्हारा स्वर्ग, जिसमें
न कहीं मूल के लिए ललक भरी गोद है,
न कहीं मर्म को सहलाती हुई थाप।
मरा हुआ मर्म
संवेदन के ताँत बन
बजता है बार-बार।
यांत्रिक ऐश्वर्य में उन्मादी गति है
सिर्फ़, स्थितियाँ नियंत्रित नहीं।
लपलपाती लालसाएँ
आकाश घेरे जिह्वाएँ
कटघरे बनाती हुई।
यह कैसा विस्तार है,
जिसमें इतनी सीमाएँ हैं।
ऊपर हवाएँ हैं बेशुमार,
नीचे साँसें घुटती हैं बार-बार—
गद्दी से गद्दी तक तुम्हारी गति।
पैर तुम्हारे ज़मीन पर नहीं पड़ते।
तुम अमर हो, कभी मर नहीं सकते।
कैसी यह नदी है तुम्हारी,
जहाँ जर्जर परिंदे हैं।
अमृत-जल एक बार पी लिया जिसने,
मर नहीं सकता कभी।
उड़ नहीं सकते ये।
गा नहीं सकते ये।
सिर्फ़ पंख फड़फड़ाते
गिरते हैं बार-बार
अफाट
सुख-भोग के किनारे।
कितने अधूरे हो देवताओ!
स्वर्गकामियो, तनिक नरकार्थी बनो।
पूरे हो जाओगे।
तुम्हारी बनावट में खोट है।
चोट खाए कितने तुमसे ओट हैं।
ऐश्वर्य को गंध की तरह बँटने दो।
अँटने दो निरभ्र आलोक।
घेरो मत दीवारें।
स्वर्ग को जीर्ण वस्त्र की तरह उतार फेंको।
जाग्रत विवेक से नरक की पाट दो खाइयाँ।
धुरीहीन देवताओ,
असंतुलन मत बढ़ाओ।
मुझे मत कहो ऋषि मंत्रमुग्ध,
नहीं हूँ मैं बरी सौरचक्र से।
मुक्ति दो अपने अधूरे प्रेतों को।
मनुष्य के सिवा पूरा कुछ भी नहीं।
अधूरे देवताओ,
पूरे बनो।
मनुष्य एक पूरे बनो।
मनुष्य अपना पूरापन ख़ुद उगाता है।
पूँजी से चिपटा अमरता तक जीता नहीं
पूँजी के लिए
स्वर्ग वह रचता नहीं।
बाँटता है जीने और होने के लिए
जीना और होना
और मरना तक—
देख ली इंद्रसभा।
रंग-रोग़न सब देख लिए।
अजायबघर से तुम्हारे
जाता हूँ अपनी बेहतर दुनिया में।
ruko he ram,
jhuthi maryada ki khaal oDhe sitapati,
ruko
hanphate hue jan sindhu ke deen skandh shesh par
asin
shantakar, kamlanyan
ho tum
main tumhein pahchanta hoon
ruko,
apar andhkar ke kale jhanDe liye,
dekho,—
ye kaun hai—wirodh karta tumhara;
sammukh tumhare hee—
akela, anwady, rudr, pralyankar
sagar garjan ka d haD ta hua
a tt ha s?
nahin,
pita lawa kush ke,
nahin
main hoon lauhpathar chakradbi
bahti sabhyata se upar uth aaya
ek kiDa ha
mukti di hai mujhe shayad anjane
tarang ne—
pita lawa kush ke,
tumne nahin
jawab do ha
hazaron ankhon se bedh gaya indr
mata ahalya ko
de di apwitrata adey apne ‘bajr hirdai se
kaun sa danD diya use—us kayer indr ko?
kya kiya us chandrma ka?
jo arunchuD swron mein parbhat ka
kara gaya bhan pita gautam ko
aur de gaya ek shap mudra prastriya—
unhen mujhe mata ahalya ko!
kaun sa danD diya?
dhire weer, nyay nikar,
jawab do,
kaun sa danD diya tumne?
ulte indr ki pratikrti bana li duhri ha
apne upar taronjDe akash
aur maniyon saje nile jaldhi se
chandrma ko bhi bhent ki
kalima apni
prasann ho
he ram,
mata ahalya ko mukt kiya tumne
pairon se raundkar?
kya wo pul thee?—
jisse gharaghrati nadi
maryada ki
par kar sake the tum!
chhu sakte the kamal karon se bhi
use ha
us patthrit gumti ko
mukti ke dwar the
tumhare we hath bhi
kya wo asan wasan wirakt
jaD disha bhar thee?
—pranwant satta nahin?
kya wo kewal bhaktilin
matr dasi thee?
—antarwatni ki durdam dharana nahin?
main hoon
lawa kush ki parampara mein jiwit ahalyaputr!
—bajabjate tumhare maryadit prawah se ubra hua kiDa
o sitapati,
jhuthe sheel ki khaal oDhe ram,
gal gaye bajabjate prawah mein jo,
kandhe do, hath do, pair do,
lai do, sandarbh do achyut,
pure manushya ka samagr sakaly do,
gati do bandhe kshairasagar ko,
mukti do deen skandh shesh ko
utro zamin par
mukut ki tarah swikaro
‘swyamprbha samujjwla ke
pushpak do
rengte sahte kiDa bhi
kshaitij phoD ban jata
sudarshanchakr
jab behath wishnu
dhritarashtr mein badal jata,
chyut hota
achyut
utro zamin par
mukti do
gati do
sandarbh do
swikaro
pratah prabha
sath sath
ao zamin par
andhere mein sui ki tarah
DhunDhakar bhi diwy chakshau samwarti,
kaise kahte ho nandi swarg natk ki
mujhe mere sutradhar,
kaise mangalya shankh phoonk doon
indr ke sadan mein,
kanon ne sune nahin mangal warn tak
pratiksha mein purin hue mahashman,
mangalwaniyan kanth ke walay hokar
jhool gain jhurriyan
bikher doon kaise shachi ke angan mein
apne indu ki rashmiyan!
ujale pakh to aaye hi nahin mahakal,
kamal par apne brahma ko aasan doon
kis tarah
kamal wo
asuryampashya likha
aj tak khila nahin
bhasinD bhar bachi hoon kunthi hui
antak, tum kahte ho, bhar den taDag dew hridyon ke
apne kairaw kadamb se kaise!
kaise kahte ho!—
amar kar doon apne chakrwakon se
pyar ki pipasa ko!
sukhe sarowar par mitti hui sandhya simat i hai!
kaise kahte ho paretraj,
wisheshnon ke bojh se
sangyahat paDi hui kab se dabi
sah nahin pati ab
wyanjna par kase hue
itne alankar bhaar!—
o kritant, swar parawat hue
main nahin nandi
nahin hoon nardiya wallki
padakram ki parampara bhi nahin main
chitr wichitr
uchchaiःshrwas ki
chhuo mat mujhe hata lo
hilte winagiri pingal mala se shital hath
laut jao yamraj,
laut jao
main swarg nahin jaungi
urwashiyan meinkayen sab mujhe dekh
nrity bhool jayengi
tal gati lai jiwan mein kahan!
kahan mere jiwan mein—
nity hi samudr manthan yahan!
kaun sa punny kiya,
amrit piya kaun sa mainne!
main swarg nahin jaungi
mere ek ansu mein airawat Doob jayega
indr ki hazar hazar ankhen bujh jayengi
chhin jayega shachi ka sharadiy has
swarg prlay andhiyara ban jayega
main swarg nahin jaungi
brahmarshai, nahin hoon main aatma nachiketa ki, na hi sawitri
kya karungi brahmawidya, shrey prey, hiranywahni—
jiwan kahin inse bhi aage, hai baDa hai, brihattar hai
kyon jaun aur laut aun
kyon jaun aur adhar mein latki rahun
mere satyawan ko rahne do mere sath samwarti,
Dhak ke sphuling dwar kahin aur honge
agnimay jiwan yahan pakta hai
gumbdon beech main jalti shikha nahin,
rasoi ki anch hoon
nity hai pawak pariksha yahan
samudr manthan yahan nity hota hai
main apne ram ki chhaya nahin,
dhiraj hoon prithwi ka
pitripati, kaun sa rturaj hai,
jiske aate aate yawankur
wasantkamr hota hai pak kar wanirwarn
kin naynon mein sharad khilta aur uDta
banta he uttarottar ujjwalta!
kaun si hai udisha lol pushkarini,
jismen chulbul machhaliyon ke
hote hain taral chamak bhare maharas!
sah nahin pati ab
wyanjna par kasi hui
aisi wiDambna!
wisheshnon ke bojh dabi
sangyahat
na main radha, na main rukminai, na main shakuntala
panchkanyaon ki swikrit kamna liye
main hoon kewal ek writt mein ghumti
ghar ke bhitar ‘shanghai ki angDai—’
o yamunbhai,
pitodak, jagdhtrin, nirindriy gau ek,
dekho, apne sookshm tan, udaracheta ritwij ke liye
ab tak bachi hui—
uDelti sneh bunden
nanhin is bati ko
dhuanth kar bhee!
kainchi se bhujaon phansa anchal kat
bhagne wali swarg ki pari main nahin
apne sudama ki mahl atari main
phuti kathauti mein parosti charon padarath main
tote ki chhati se komal mahakal,
pinjre mein nahin rahungi
main wan jaungi,
par swarg nahin jaungi
‘suli upar sej bichhakar
so jaungi,
par swarg nahin jaungi
main khinchi is rekha ke aage nahin jaungi
dharmaraj, nahin Darti tumhare buDhe bhure chandrma jyon
bhainse se,
chhalna se Darti hoon
jua chhal se ghabrati
sahne se nahin
shraddhdew samwarti, swarg kya hai
saDiyon ke baDhte hue khinchte
rangarang bahte mitte
badlon ka bhurbhura ekant
nange pani mein
swarg kya hai
iske siwa
meri laj rakh lo mere hari
danDdhar!
tum kahte ho, barf ho gai hoon
to kya, gal jaungi
tum kahte, main tahni hoon
sulag jaungi
“tum kahte
‘uttar wela yah’
waiwaswat, tum chale aao
mujhe mere satyawan ke sath rahne do
alawida dewtao, alawida!
dekh li indrasbha ha
sthagit hain mudrayen
sirf sanwedan jhanajhnate hain,
atma yahan kahan hai?
sanwden ke putlo,
tumhare swarg ke
dekh liye print
bhige aishwary ke
kaisa hai swarg ye
ek ek thirkan mein
dikhti hain narak ki bhari thakanen!
kaisi hai marmar dhwani
nandan kanan ki
patte patte ki awaz ye kaisi hai!
dabi dabi
kitni kitni, kiski kiski
rundhi hui siskiyan
hawaon mein
gunjti hain mand mand
ati hui patte patte se
bhog ke itne bihaD jugaD hetu
kitne puratattw hue!
pathar par rah gaye
lakir bhar kitne anatm ho
kitne rengte
hisab do
kalpawrksh ye tumhara
harahrata hai kis tarah
kitne samudron ke kitne
sugandhit badlon ki khad kitni
iski patal tak gai
jaDon mein Dali gai,
jawab do dewtao!
kamadhenu, sirf jo tumhari hai,
jugali jab karti hai,
is anawrat mahotsaw ke pichhe
chupchap chakkiyon ki gharaghrahten
harsingar si tapakti hain;
safed ho gaya khoon jhag bankar rah jata
chuppi mein chhipe kitne kitne kitne dard ke ehsas
swarg mein tumhare
narak ki katha
is tarah nirantar chalti hai
nrity ye band kar do apsrao,
ek bachcha kahin nupur sa chhitka paDa
pasine ki boond sa thithka, khincha
‘door pensil rekh sa
dhire dhire dhundhlata,
hawa par chalti naDi sa swar uska
yahan tak aata
band kar do nrity apsrao,
kahin kisi ramagiri par
adhamra ek yaksh
pani tak ke liye taDapta
kitna anatmiy ho gaya hai
tumhara swarg, jismen
na kahin mool ke liye lalak bhari god hai,
na kahin marm ko sahlati hui thap
mara hua marm
sanwedan ke tant ban
bajta hai bar bar
yantrik aishwary mein unmadi gati hai
sirf, sthitiyan niyantrit nahin
laplapati lalsayen
akash ghere jihwayen
katghare banati hui
ye kaisa wistar hai,
jismen itni simayen hain
upar hawayen hain beshumar,
niche sansen ghutti hain bar bar—
gaddi se gaddi tak tumhari gati
pair tumhare zamin par nahin paDte
tum amar ho, kabhi mar nahin sakte
kaisi ye nadi hai tumhari,
jahan jarjar parinde hain
amrit jal ek bar pi liya jisne,
mar nahin sakta kabhi
uD nahin sakte ye
ga nahin sakte ye
sirf pankh phaDphaDate
girte hain bar bar
aphat
sukh bhog ke kinare
kitne adhure ho dewtao!
swargkamiyo, tanik narkarthi bano
pure ho jaoge
tumhari banawat mein khot hai
chot khaye kitne tumse ot hain
aishwary ko gandh ki tarah bantane do
antane do nirabhr aalok
ghero mat diwaren
swarg ko jeern wastra ki tarah utar phenko
jagrat wiwek se narak ki pat do khaiyan
dhurihin dewtao,
asantulan mat baDhao
mujhe mat kaho rishi mantrmugdh,
nahin hoon main bari saurchakr se
mukti do apne adhure preton ko
manushya ke siwa pura kuch bhi nahin
adhure dewtao,
pure bano
manushya ek pure bano
manushya apna purapan khu ugata hai
punji se chipta amarta tak jita nahin
punji ke liye
swarg wo rachta nahin
bantta hai jine aur hone ke liye
jina aur hona
aur marna tak—
dekh li indrasbha
rang roghan sab dekh liye
ajayabghar se tumhare
jata hoon apni behtar duniya mein
ruko he ram,
jhuthi maryada ki khaal oDhe sitapati,
ruko
hanphate hue jan sindhu ke deen skandh shesh par
asin
shantakar, kamlanyan
ho tum
main tumhein pahchanta hoon
ruko,
apar andhkar ke kale jhanDe liye,
dekho,—
ye kaun hai—wirodh karta tumhara;
sammukh tumhare hee—
akela, anwady, rudr, pralyankar
sagar garjan ka d haD ta hua
a tt ha s?
nahin,
pita lawa kush ke,
nahin
main hoon lauhpathar chakradbi
bahti sabhyata se upar uth aaya
ek kiDa ha
mukti di hai mujhe shayad anjane
tarang ne—
pita lawa kush ke,
tumne nahin
jawab do ha
hazaron ankhon se bedh gaya indr
mata ahalya ko
de di apwitrata adey apne ‘bajr hirdai se
kaun sa danD diya use—us kayer indr ko?
kya kiya us chandrma ka?
jo arunchuD swron mein parbhat ka
kara gaya bhan pita gautam ko
aur de gaya ek shap mudra prastriya—
unhen mujhe mata ahalya ko!
kaun sa danD diya?
dhire weer, nyay nikar,
jawab do,
kaun sa danD diya tumne?
ulte indr ki pratikrti bana li duhri ha
apne upar taronjDe akash
aur maniyon saje nile jaldhi se
chandrma ko bhi bhent ki
kalima apni
prasann ho
he ram,
mata ahalya ko mukt kiya tumne
pairon se raundkar?
kya wo pul thee?—
jisse gharaghrati nadi
maryada ki
par kar sake the tum!
chhu sakte the kamal karon se bhi
use ha
us patthrit gumti ko
mukti ke dwar the
tumhare we hath bhi
kya wo asan wasan wirakt
jaD disha bhar thee?
—pranwant satta nahin?
kya wo kewal bhaktilin
matr dasi thee?
—antarwatni ki durdam dharana nahin?
main hoon
lawa kush ki parampara mein jiwit ahalyaputr!
—bajabjate tumhare maryadit prawah se ubra hua kiDa
o sitapati,
jhuthe sheel ki khaal oDhe ram,
gal gaye bajabjate prawah mein jo,
kandhe do, hath do, pair do,
lai do, sandarbh do achyut,
pure manushya ka samagr sakaly do,
gati do bandhe kshairasagar ko,
mukti do deen skandh shesh ko
utro zamin par
mukut ki tarah swikaro
‘swyamprbha samujjwla ke
pushpak do
rengte sahte kiDa bhi
kshaitij phoD ban jata
sudarshanchakr
jab behath wishnu
dhritarashtr mein badal jata,
chyut hota
achyut
utro zamin par
mukti do
gati do
sandarbh do
swikaro
pratah prabha
sath sath
ao zamin par
andhere mein sui ki tarah
DhunDhakar bhi diwy chakshau samwarti,
kaise kahte ho nandi swarg natk ki
mujhe mere sutradhar,
kaise mangalya shankh phoonk doon
indr ke sadan mein,
kanon ne sune nahin mangal warn tak
pratiksha mein purin hue mahashman,
mangalwaniyan kanth ke walay hokar
jhool gain jhurriyan
bikher doon kaise shachi ke angan mein
apne indu ki rashmiyan!
ujale pakh to aaye hi nahin mahakal,
kamal par apne brahma ko aasan doon
kis tarah
kamal wo
asuryampashya likha
aj tak khila nahin
bhasinD bhar bachi hoon kunthi hui
antak, tum kahte ho, bhar den taDag dew hridyon ke
apne kairaw kadamb se kaise!
kaise kahte ho!—
amar kar doon apne chakrwakon se
pyar ki pipasa ko!
sukhe sarowar par mitti hui sandhya simat i hai!
kaise kahte ho paretraj,
wisheshnon ke bojh se
sangyahat paDi hui kab se dabi
sah nahin pati ab
wyanjna par kase hue
itne alankar bhaar!—
o kritant, swar parawat hue
main nahin nandi
nahin hoon nardiya wallki
padakram ki parampara bhi nahin main
chitr wichitr
uchchaiःshrwas ki
chhuo mat mujhe hata lo
hilte winagiri pingal mala se shital hath
laut jao yamraj,
laut jao
main swarg nahin jaungi
urwashiyan meinkayen sab mujhe dekh
nrity bhool jayengi
tal gati lai jiwan mein kahan!
kahan mere jiwan mein—
nity hi samudr manthan yahan!
kaun sa punny kiya,
amrit piya kaun sa mainne!
main swarg nahin jaungi
mere ek ansu mein airawat Doob jayega
indr ki hazar hazar ankhen bujh jayengi
chhin jayega shachi ka sharadiy has
swarg prlay andhiyara ban jayega
main swarg nahin jaungi
brahmarshai, nahin hoon main aatma nachiketa ki, na hi sawitri
kya karungi brahmawidya, shrey prey, hiranywahni—
jiwan kahin inse bhi aage, hai baDa hai, brihattar hai
kyon jaun aur laut aun
kyon jaun aur adhar mein latki rahun
mere satyawan ko rahne do mere sath samwarti,
Dhak ke sphuling dwar kahin aur honge
agnimay jiwan yahan pakta hai
gumbdon beech main jalti shikha nahin,
rasoi ki anch hoon
nity hai pawak pariksha yahan
samudr manthan yahan nity hota hai
main apne ram ki chhaya nahin,
dhiraj hoon prithwi ka
pitripati, kaun sa rturaj hai,
jiske aate aate yawankur
wasantkamr hota hai pak kar wanirwarn
kin naynon mein sharad khilta aur uDta
banta he uttarottar ujjwalta!
kaun si hai udisha lol pushkarini,
jismen chulbul machhaliyon ke
hote hain taral chamak bhare maharas!
sah nahin pati ab
wyanjna par kasi hui
aisi wiDambna!
wisheshnon ke bojh dabi
sangyahat
na main radha, na main rukminai, na main shakuntala
panchkanyaon ki swikrit kamna liye
main hoon kewal ek writt mein ghumti
ghar ke bhitar ‘shanghai ki angDai—’
o yamunbhai,
pitodak, jagdhtrin, nirindriy gau ek,
dekho, apne sookshm tan, udaracheta ritwij ke liye
ab tak bachi hui—
uDelti sneh bunden
nanhin is bati ko
dhuanth kar bhee!
kainchi se bhujaon phansa anchal kat
bhagne wali swarg ki pari main nahin
apne sudama ki mahl atari main
phuti kathauti mein parosti charon padarath main
tote ki chhati se komal mahakal,
pinjre mein nahin rahungi
main wan jaungi,
par swarg nahin jaungi
‘suli upar sej bichhakar
so jaungi,
par swarg nahin jaungi
main khinchi is rekha ke aage nahin jaungi
dharmaraj, nahin Darti tumhare buDhe bhure chandrma jyon
bhainse se,
chhalna se Darti hoon
jua chhal se ghabrati
sahne se nahin
shraddhdew samwarti, swarg kya hai
saDiyon ke baDhte hue khinchte
rangarang bahte mitte
badlon ka bhurbhura ekant
nange pani mein
swarg kya hai
iske siwa
meri laj rakh lo mere hari
danDdhar!
tum kahte ho, barf ho gai hoon
to kya, gal jaungi
tum kahte, main tahni hoon
sulag jaungi
“tum kahte
‘uttar wela yah’
waiwaswat, tum chale aao
mujhe mere satyawan ke sath rahne do
alawida dewtao, alawida!
dekh li indrasbha ha
sthagit hain mudrayen
sirf sanwedan jhanajhnate hain,
atma yahan kahan hai?
sanwden ke putlo,
tumhare swarg ke
dekh liye print
bhige aishwary ke
kaisa hai swarg ye
ek ek thirkan mein
dikhti hain narak ki bhari thakanen!
kaisi hai marmar dhwani
nandan kanan ki
patte patte ki awaz ye kaisi hai!
dabi dabi
kitni kitni, kiski kiski
rundhi hui siskiyan
hawaon mein
gunjti hain mand mand
ati hui patte patte se
bhog ke itne bihaD jugaD hetu
kitne puratattw hue!
pathar par rah gaye
lakir bhar kitne anatm ho
kitne rengte
hisab do
kalpawrksh ye tumhara
harahrata hai kis tarah
kitne samudron ke kitne
sugandhit badlon ki khad kitni
iski patal tak gai
jaDon mein Dali gai,
jawab do dewtao!
kamadhenu, sirf jo tumhari hai,
jugali jab karti hai,
is anawrat mahotsaw ke pichhe
chupchap chakkiyon ki gharaghrahten
harsingar si tapakti hain;
safed ho gaya khoon jhag bankar rah jata
chuppi mein chhipe kitne kitne kitne dard ke ehsas
swarg mein tumhare
narak ki katha
is tarah nirantar chalti hai
nrity ye band kar do apsrao,
ek bachcha kahin nupur sa chhitka paDa
pasine ki boond sa thithka, khincha
‘door pensil rekh sa
dhire dhire dhundhlata,
hawa par chalti naDi sa swar uska
yahan tak aata
band kar do nrity apsrao,
kahin kisi ramagiri par
adhamra ek yaksh
pani tak ke liye taDapta
kitna anatmiy ho gaya hai
tumhara swarg, jismen
na kahin mool ke liye lalak bhari god hai,
na kahin marm ko sahlati hui thap
mara hua marm
sanwedan ke tant ban
bajta hai bar bar
yantrik aishwary mein unmadi gati hai
sirf, sthitiyan niyantrit nahin
laplapati lalsayen
akash ghere jihwayen
katghare banati hui
ye kaisa wistar hai,
jismen itni simayen hain
upar hawayen hain beshumar,
niche sansen ghutti hain bar bar—
gaddi se gaddi tak tumhari gati
pair tumhare zamin par nahin paDte
tum amar ho, kabhi mar nahin sakte
kaisi ye nadi hai tumhari,
jahan jarjar parinde hain
amrit jal ek bar pi liya jisne,
mar nahin sakta kabhi
uD nahin sakte ye
ga nahin sakte ye
sirf pankh phaDphaDate
girte hain bar bar
aphat
sukh bhog ke kinare
kitne adhure ho dewtao!
swargkamiyo, tanik narkarthi bano
pure ho jaoge
tumhari banawat mein khot hai
chot khaye kitne tumse ot hain
aishwary ko gandh ki tarah bantane do
antane do nirabhr aalok
ghero mat diwaren
swarg ko jeern wastra ki tarah utar phenko
jagrat wiwek se narak ki pat do khaiyan
dhurihin dewtao,
asantulan mat baDhao
mujhe mat kaho rishi mantrmugdh,
nahin hoon main bari saurchakr se
mukti do apne adhure preton ko
manushya ke siwa pura kuch bhi nahin
adhure dewtao,
pure bano
manushya ek pure bano
manushya apna purapan khu ugata hai
punji se chipta amarta tak jita nahin
punji ke liye
swarg wo rachta nahin
bantta hai jine aur hone ke liye
jina aur hona
aur marna tak—
dekh li indrasbha
rang roghan sab dekh liye
ajayabghar se tumhare
jata hoon apni behtar duniya mein
स्रोत :
पुस्तक : गली का परिवेश (पृष्ठ 88)
रचनाकार : श्रीराम वर्मा
प्रकाशन : पीतांबर प्रकाशन
संस्करण : 2000
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