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पिछला वसंत एक नदी की तरह बह गया

pichhla wasant ek nadi ki tarah bah gaya

शेषेन्द्र शर्मा

शेषेन्द्र शर्मा

पिछला वसंत एक नदी की तरह बह गया

शेषेन्द्र शर्मा

और अधिकशेषेन्द्र शर्मा

    पिछला वसंत एक नदी की तरह बह गया/मैं कुछ नहीं जानता कि

    किन वनों में भटक कर वह सो गया।

    किंतु वसंत फिर लौट आया/मेरे घर के पिछवाड़े के आम्र वृक्ष

    को खोजता हुआ/विश्व में प्रत्येक वस्तु प्रवाहित है/किंतु वह सौन्दर्य

    की खोज में पुनः-पुनः लौटती रहती है।

    वृक्षों की पत्तियों के पीछे/मैं पक्षियों के पदचिन्ह पाता हूँ/जो गत

    वर्ष उड़ गए क्षणों के निशान हैं।

    मेरी इस थकी यात्रा में वृक्ष की छाया मेरी मधुशाला है और कोई

    गिरा हुआ पुष्प/मेरा अभ्यागत है।

    यही वसंत तो वर्ष का वह पहला स्वप्न है जिसमें/मैं अपने देश के

    शरीर पर प्रभातपूर्ण स्वप्न की तरह/देश के अरण्यों से/अपनी नग्नता

    को ढाँपते हुए/नदियों को पगड़ी की तरह लपेटे हुए/अपने कंधों पर

    राहों को उठाए हुए/अपने मार्ग पर अग्रसर हूँ/मैं चलता हूँ/रोते हुए

    खेतों को सांत्वना देता हुआ/मैं चलता हूँ/मेरे देश की सदियों से रूप

    और वाणी को प्रतीक्षित पहाड़ियों को/रूपायित करता हुआ/सिंहों,

    ऊँटों, श्रमिकों, कृषकों, प्रेमियों और इतिहासों में/जो कि उनके मुकुटों

    के समान हैं।

    प्रातःकिरणों के भार से लदी बैलगाड़ी में/सूर्य चला रहा है/वह

    वृक्ष/जिसने मुझे पहले पहल देखकर आँसू टपकाए थे/अब मेरे स्वप्न

    पर फूल बरसाता है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : शब्द इस शताब्दी का (पृष्ठ 53)
    • रचनाकार : कवि के साथ भीम सेन 'निर्मल', ओम प्रकाश निर्मल
    • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन
    • संस्करण : 1991

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