पुरानी तस्वीरों में ऐसा क्या है
जो जब दिख जाती हैं तो मैं ग़ौर से देखने लगता हूँ
क्या वह सिर्फ़ एक चमकीली युवावस्था है
सिर पर घने बाल नाक-नक़्श कुछ कोमल
जिन पर माता-पिता से पैदा होने का आभास बचा हुआ है
आँखें जैसे दूर तक देखने की उत्सुकता से भरी हुईं
बिना प्रेस किए हुए कपड़े उस दौर के
जब ज़िंदगी ऐसी ही सलवटों में लिपटी हुई थी
इस तस्वीर में मैं हूँ अपने वास्तविक रूप में
एक स्वप्न सरीखा चेहरे पर अपना हृदय लिए हुए
अपने ही जैसे बेफ़िक्र दोस्तों के साथ
एक हल्के बादल की मानिंद जो कहीं से तैरता हुआ आया है
और क्षण भर के लिए एक कोने में टिक गया है
कहीं कोई कठोरता नहीं कोई चतुराई नहीं
आँखों में कोई लालच नहीं
यह तस्वीर सुबह एक ढाबे में चाय पीते समय की है
उसके आस-पास की दुनिया भी सरल और मासूम है
चाय के कप ढाबे और सुबह की तरह
ऐसी कितनी ही तस्वीरें हैं जिन्हें कभी-कभी
घर आए मेहमानों को दिखलाता हूँ
और अब यह क्या है कि मैं अकसर तस्वीरें ख़िचवाने से कतराता हूँ
खींचने वाले से कहता हूँ रहने दो
मेरा फ़ोटो अच्छा नहीं आता मैं सतर्क हो जाता हूँ
जैसे एक आईना सामने रख दिया गया हो
सोचता हूँ क्या यह कोई डर है कि मैं पहले जैसा नहीं दिखूँगा
शायद मेरे चेहरे पर झलक उठेंगी इस दुनिया की कठोरताएँ
और चतुराइयाँ और लालच
इन दिनों हर तरफ़ ऐसी ही चीज़ों की तस्वीरें ज़्यादा दिखाई देती हैं
और जिनसे लड़ने की कोशिश में
मैं कभी-कभी इन पुरानी तस्वीरों को ही
हथियार की तरह उठाने की सोचता हूँ।
- रचनाकार : मंगलेश डबराल
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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