फलितआपा
phalitapa
अशोक वाजपेयी के लिए
इतने कम शब्दों से बना हमारा साझा कि लगभग मौनी था
सुधर सरलता संरचते विन्यास में
ज़बरजोत का भला क्या काम!
जान साँसत में डली रहती कि अपने काम के प्रति समर्पित
था मैं
अब भी हूँ
ताकि सनद रहे
तब महज़ एक जुमला भर नहीं था यह
जान लो
वे मरेंगे एक फूल की तरह पूरा खिलकर
अपनी आत्मा में अकेले जो शर्तिया एक कवि की है
हलफ़नामा उठाए अपने इनसानी गुनाह क़बूल करते
जिनमें मेरा नाम नहीं होगा
हो सकता है औरों का हो
वे जानते है मैं ऐबदार सही पर गर्वीला हूँ
टटल बटल करते अँखुआता
लील जाने दिया जिसने अपना भागय
गाबदू घोंघों को
गो अब भी हँस सकता हूँ उनकी नक़्क़ाल
कारीगरी और टुच्चे हौसलों पे।
किरदार जब तक तक रहा होनहार रहा
अभय से साँस लेते
वे स्वयं एक नश्वर देवता हैं
अंतारंभ के अरण्य में
बहुरि अकेला
विस्ताराकाँक्षा के आवेग से सने
गपियाते नामरूप के चौगान में
धरती की न्यौतालिपि ईजाद करते
जिजीविषा के भेद को गहते
दुनियादारी के सारे निशान उनमें हैं अलग मिट्टी से बने
सिवाय अप्रत्याशित के
उनके काँपते कमज़ोर कंधे को अब किसी हाथ की दरकार
नहीं
आत्मा तक उल्टी करते
विलास सब देखे हैं उनने
लेकिन जो बीता उन पर उसे कौन समझोगा
फ़रिश्ता वह
मेरे फ़ैसलों में मुझे अकेला छोड़ देता हर बार
ऐसा एक स्वाधीन संबंध जो
एकांत और सर्जना का निर्व्याज आलोक देता है
मेरी पाटी पर अपनी खड़िया से
कोई पहाड़ा लिखकर मुझे पढ़ाते
ऐसी नौबत कभी नहीं आई
सबसे सुंदर रहा यह कि वे मेरी ज़िंदगी के
दाख़िलकार नहीं बने
अध्यात्म अभिधाधारी हो सकता है यह इसी नाते से जाना
संसारी कामकाज के ऐन बीचोंबीच फलते व साँस लेते
निश्छल हँसी वाला वह
कवि चेहरा है। एक चतुर सुजान
सबकी खाट खड़ी करता
- पुस्तक : चिह्न (पृष्ठ 53)
- रचनाकार : पीयूष दईया
- प्रकाशन : वाणी प्रकाशन
- संस्करण : 2013
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