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पेट तक

pet tak

पवन चौहान

पवन चौहान

पेट तक

पवन चौहान

और अधिकपवन चौहान

    मैं आते-जाते रोज़ देखता हूँ

    बस के पीछे भागते नन्हे क़दम

    बस रुकते ही चढ़ जाते हैं जो

    नीले, पीले, गुलाबी, सफ़ेद परचे लिए

    जिन पर अंकित रहती हैं

    उनकी ग़रीबी बयानती चंद पंक्तियाँ

    वह शब्दों से अनजान

    परंतु उनकी हक़ीक़त से वाकिफ़ है

    मैले ख़ूब मैले

    फटे पुराने कपड़े पहने

    बस में चढ़ते ही फैला देती वह

    एक अज़ीब-सी गंध

    और हर हाथ में थमा देती है वही

    रंग-बिरंगे परचे

    ताकि समझ पाए लोग

    उसकी दास्ताँ उसकी पीड़ा

    मात्र कुछ शब्दों से ही

    हाथ जोड़, आँखों में आँसु लिए

    रोज पाँव छुकर गिड़गिड़ाना

    ताकि भर सके वह

    अपना और अपने परिवार का पेट

    यह दिनचर्या है उसकी

    उसकी ज़िंदगी का सच

    कड़वा सच

    आज मेरे पूछने पर

    ‘कहाँ तक पढ़ी हो बेटी’

    ...‘पेट तक बाबू जी’

    देखता ही रहा कुछ पल तक

    उसका बोझिल चेहरा

    बस के एक झटके के साथ

    सफ़र शुरु हुआ फिर...

    हड़बड़ाहट में निकल गए बाहर

    वह नन्हे मैले क़दम

    छूट गए पीछे कुछ रंगीन परचे

    कुछ अनकहे सवाल

    कुछ अनसुने जबाव

    और फिर बढ़ता ही गया फासला

    उन नन्ही आँखों और

    उन अनबुझे सवालों के बीच।

    स्रोत :
    • रचनाकार : पवन चौहान
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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