पीठ पर बोझ लादे भागते बच्चे
peeth par bojh lade bhagte bachche
विनीत के लिए
वे बीज को पेड़ में जल्द बदलते देखना चाहते हैं
एक लंबी प्रक्रिया पर उनका विश्वास नहीं
वे नहीं चाहते कि जीवन
शास्त्रीय संगीत की तरह हो
जहाँ एक टुकड़े को गाते-गाते भोर हो जाए
वे चाहते हैं जल्दी-जल्दी में
तय कर लिए जाएँ सारे रास्ते
सारे रेगिस्तान को पार कर लिया जाए
कुछ क्षणों में
सारे गीत के बोल दुहरा लिए जाएँ पल भर में
वे चाहते हैं
उनके बच्चे जल्दी-जल्दी बढ़ें
और पहाड़ हो जाएँ
जल्दी-जल्दी बहें
और समुद्र हो जाएँ
उन्होंने बच्चों की पीठ पर लाद दिए
बड़े-बड़े पहाड़
बड़ी-बड़ी नदियाँ
सभ्यताओं की खंडहरों की ढेरों ईंटें
गणित की कितनी ही गुत्थियाँ
उनकी कमर को कस दिया मज़बूत बेल्ट से
फूल जैसे पाँवों में जकड़ दिए जूते
शामिल कर दिया उस अंतहीन दौड़ में
जहाँ सिर्फ़ दौड़ना था
दौड़ ही दौड़ में बनाते जाने थे
छोटे-छोटे रिश्ते
भागते-भागते माँग लेना था किसी से
पसीने से तरबतर
चेहरे को पोंछ लेने के लिए रूमाल
उनके लिए वे सिर्फ़ बच्चे नहीं हैं
बड़ी दूर तक मार करने वाली मिसाइलें हैं
वे बटन से चलने वाले रोबोट हैं
बच्चे दौड़ते-दौडते
हाँफते हैं, गिरते हैं
पीठ पर लदे पहाड़ से कराहते हैं,
वे जब फूलों को देखकर रुकते तो
रास्तों से उन फूलों को हटा दिया जाता
वे दौड़ते हैं
लेकिन झुंड में
धूप में पड़ी
अपनी परछाईं भी नहीं पहचान पाते
वे बच्चे नहीं हैं
रेगिस्तान में दौड़ते-हाँफते
विजेताओं की लूट का सामान ढोते
ऊँट की पीठ हैं
यह सुस्ताने का नहीं
भागते रहने का समय है
बड़ो ने बच्चों के दौड़ने के मार्ग तय कर दिए हैं
हमारे समय के बच्चे
दौड़ते-दौड़ते बचपन की चहारदीवारी
बचपन की यादों के बिना ही फाँद गए
दौड़ते जा रहे हैं बच्चे—
जब तक कि वे जीत न लें पूरी पृथ्वी
जीत न लें सारे सुख
लोग पीट रहे हैं तालियाँ
बच्चे दौड़ते हैं
गिरते हैं
हाँफते हैं
मरते हैं
स्कूल की घंटियों में गुम हो गई उनकी कराह
भूगोल की किताबों में खो गए उनके खेल के मैदान
बचपन की उनकी तमाम आदतों को
रख दिया गया अजायब घरों में
दौड़ते-दौड़ते बड़े हो जाते हैं बच्चे
वे सुस्ताना छोड़
शामिल हो जाते हैं बड़ों की दौड़ में,
फिर वे ही बनाने लगते हैं
अपने-अपने बच्चों के लिए दौड़ के रास्ते
हमारे समय में
शब्दों में ही बचे रह गए हैं बच्चे
और किताबों तक ही रह गए हैं
उनके बचपन की कारगुज़ारियों के क़िस्से
हमारे समय के बच्चों का दुख
कविताओं में जगह पाकर भी
उसका बड़ा हिस्सा
उससे बाहर ही
छटपटाता रह जाता है।
- पुस्तक : हे गार्गी (पृष्ठ 34)
- रचनाकार : सत्येंद्र कुमार
- प्रकाशन : रश्मि प्रकाशन
- संस्करण : 2018
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