इस विपुला धरती के देश-देश में दिगंत तक फैले हुए हैं
शस्य-श्यामल खेत
कहीं पर गेहूँ और धान
और कहीं पर खजूर अथवा अंगूर के उद्यान
वलयित तृणपूर्ण चरागाह-प्रांतर मे
अगणित दुग्धवती गोमाताएँ विचरण करती हैं।
फिर भी यह सर्वंसहा धरती की गोद में
यह क्षुद्र मानव-शिशु
मदमत्त हिंसा के चीत्कार से
उष्ण रक्त बहाकर धरती की सुपवित्र धूल को सिक्त करता है।
धूम्र और वाष्प से जनपद को आच्छादित कर
नित्य धर्म के मुँह पर कालिख लगाकर
उसकी तोपें गरजती हैं
उसकी तलवारों की धारें चमकती हैं।
धरती की फसल, फल, स्वर्ण-रत्न, सरिता और सागर पर
सबका है समान अधिकार
क्या किसी के कानों में यह शाश्वत शांति-समाचार नहीं गूँजता!
- पुस्तक : भारतीय कविता 1954-55 (पृष्ठ 71 )
- रचनाकार : जानकी वल्लभ महांति
- प्रकाशन : साहित्य अकादमी
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