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पत्थर की तरह निश्चल

patthar ki tarah nishchal

प्रभात त्रिपाठी

प्रभात त्रिपाठी

पत्थर की तरह निश्चल

प्रभात त्रिपाठी

और अधिकप्रभात त्रिपाठी

     

    एक

    बग़ैर धुएँ के
    एक आँच-सी हमेशा 
    होती है अंदर
    और पत्थर की तरह निश्चल
    तुम देखते हो हर पल
    अपना सुलगना, जलना और
    धीरे-धीरे राख होना

    उधर आग एक हाँडी में
    भात पका रही है
    और दूसरी ओर
    चिता की लकड़ियाँ जला रही है
    पर चारों ओर जिन लपटों से
    झुलसा रही है लोगों को
    यह उसी की आँच है शायद

    ऋतुवर्णन की रूढ़ि की तरह
    अग्निकथा का यह दृश्य
    तुम्हें और क्या-क्या दिखा रहा है
    उसे भूलने या याद करने की कोशिश में
    तुम भागते हुए गुज़रते हो
    ताज़ा बमबारी से जलती
    बस्ती के क़रीब से

    फिर अपनी हँफनी के
    किसी अचानक पड़ाव पर
    विस्मय से देखते हो
    कि एक तरफ़ बोरसी से
    आग ताप रही है
    सिर से सफ़ेद बालोंवाली एक बुढ़िया
    और दूसरी तरफ़
    वैसी ही झुर्रीदार हथेली से
    सुबह-सुबह
    नवजात की नाभि सेंक रही है

    अपने पथराए अंत:स्तल में
    बनते-मिटते चित्रों का यह समय सुझाता है
    कि तुम चुपचाप लेट जाओ
    अपने नर्म गुदगुदे बिस्तर पर

    दो

    लेकिन वहाँ भी नाचती मिलती हैं
    असंख्य कामनाओं की अग्निमालाएँ
    घुप्प अँधेरे के इस काँपते वक़्त में
    न तुम जल पाते हो
    न जला पाते हो
    बेमतलब की सुंदर
    पर हमेशा से क्रूर और पराई
    इस दुनिया को

    स्रोत :
    • रचनाकार : प्रभात त्रिपाठी
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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