एक
उदास चुप-सी आती हैं सबसे ख़ुशनुमा यादें
फ़र्श पर लगभग बुझ चुकी है आख़िरी सिगरेट
अख़बारों में मौसम के बारे में ग़लत सूचनाएँ हैं
पिछली तसल्लियाँ फूटी नावों-सी डूब गई हैं
सर्द रातों में कौन दरवाज़ा खटखटाता है
कौन बुलावा देता है कि आओ, देखो
बाहर अब तक की मानव सभ्यता का
सबसे दिलचस्प शिकार चल रहा है
हम बंद रहे हैं इस कमरे में डरे हुए बच्चों की तरह
दुबके रहे हैं अपने बिस्तरों में
हम सहलाते रहे हैं अपने ताज़ा पुरे पिछले ज़ख़्मों को
कमरे में पड़े जूठे बर्तन जागते रहते हैं
डरावना शोर उगलती रात-रात भर छटपटाती हैं किताबें
चीख़ती हैं बंद खिड़कियाँ बाहर का सब कुछ देखती हुईं
दिमाग़ में कोई बड़बड़ाता रहता है टूटे हुए वाक्य
हम जानते हैं बाहर क्रूर बर्फ़ की बारिश हो रही है
हम जानते हैं
लपक रही हैं रायफलें
ज़हरीले झरने बढ़े आ रहे हैं बस्तियों की तरफ़
मगर हम यह भी जानते हैं कि जवाबी कार्रवाई के लिए
हमारे पास कुछ कारगर चीज़ें हैं—मसलन
दिमाग़ में आलोक के फूल सधे विचार
और कौंधते कसमसाते ये वज्र आतुर हाथ
हम इतिहास के बेटे हैं अपनी मिट्टी की सुगंध
चलो दरवाज़ा खोल दें
दीवारों पर कुछ अजीब-सी छायाएँ फैल रही हैं
न जाने किधर से उछलकर आ रहे हैं ख़ून के थक्के
जो बाहर चल रहा है वह कमरों तक भी आएगा
देर-सबेर कमरा भी सुरक्षित नहीं रह पाएगा
दो
अनगिनत काले घोड़े दौड़ते जा रहे हैं
तमाम दिशाओं में
टापों से धूल के बादल उछालते
रौंदी हुई धरती की आँतों में घुमड़ रही है
कई तरह की भूख और प्यास
हमारी पलकों पर इकट्ठा हो रही हैं ठंडी बूँदें
अपनी कविता की साँसों में मुझे बारूद की गंध आ रही है
मैं करोड़ों पाँवों के साथ
ज़मीन के इस मटियाले फैलाव पर शिकंजा कसे दमन की
इस काली रात में
इसकी आख़िरी सरहदों तक जाना चाहता हूँ
उठ रही हैं, उठेगी गैंतियाँ, कुदालें,
उठ रहे हैं, उठेंगे फावड़े, हँसिए, मिट्टी के स्वाद भरे हल
मैं फैलाना चाहता हूँ करोड़ों दहकती उँगलियों की तरह
ख़ुद को और तुम्हें
अँधेरे की आख़िरी हदों तक
तीन
गुज़रने दो इन सर्द हवाओं को मांसपेशियों से
एक-एक शिरा से
हड्डियों में बसे सदियों के धूसर अपमानों से
हम क्रूरताओं की बौछारों में पैदा हुए
हम क्रूरताओं में पले
जैसे पत्थर के नीचे दबी घास
जैसे राख में ज़िंदा आग
और फिर यह कोई कम बड़ा अचरज है
कि हम हैं
अपने होने भर से सारा का सारा जंगल हिलाते हुए
हम जानते हैं आएगा एक दिन वसंत
ज़िंदा चीज़ों को दुलारता हुआ
गुज़रने दो इन सर्द हवाओं को
गुलाबी ख़ुशियों और चोट के नीले निशानों से
कोई परवाह नहीं
जब तक हमारी छाती में दहाड़ती है वर्ग घृणा
और हमारे हाथ हरकत कर रहे हैं
कोई परवाह नहीं
कि हमारे अँधेरे में शामिल है एक सिरे से फैलती
तीसरी दुनिया की समस्त आग
चार
कसे हुए ढोलों-सी बजाई गईं
दुखों से भरी हमारी आत्माएँ
मार खाती रही पीठ और रोईं आँखें
एक दूसरे से बिना कुछ पूछे
समयहीन संस्कृति में एक भूरी उदासी भीगती रही
पानी हो रहा है हर तरफ़ पुराने ईमान का नमक
इस बढ़ते हुए तापमान में बचाओ कुछ ज़रूरी चीज़ें
अगर बचा पाओ
बचाओ स्वाधीनता जो हरियाली है यादों में बसी
बचाओ एक कोंपल
जो विपरीत मौसमों के ख़िलाफ़ अड़ी है
भीतर कहीं आहटों से थरथराती हवा में
चुप्पियों में दबी चीख़ाें तक जाने दो दौड़ते हुए ख़ून को
और फिर वही तुम्हें कहेगा
कि अब कुछ भी बचा पाने के लिए
इरादों और हाथों को एक जगह इकट्ठा कर
उन्हें देना है एक शब्द—'हमला'
बटोरो एक बार अँधेरे में गुम होते हुए सपनों को
अपनी मानवीय लालसाओं को रौशन करते हुए
पोंछो उनके चेहरे से गर्द-ओ-ग़ुबार
कहो कि तुम आदमी हो और आदमियों की तरह जीना चाहते हो
ख़ुश क़साइयों के ख़िलाफ़ लड़ते हुए
हम इतिहास के बेटे हैं अपनी मिट्टी की सुगंध
हम नींद को गुँजाती जाग हैं
हम अँधेरे और जंगल में फैलती हुई आग हैं
- रचनाकार : पंकज सिंह
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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