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परवा लेदु

parwa ledu

सौरभ राय

सौरभ राय

परवा लेदु

सौरभ राय

और अधिकसौरभ राय

    बाबा ने पूरा जीवन रेलवे माहौल में बिताया

    तब दक्षिण-पूर्व रेल का प्रसार बिहार से आंध्र तक था

    तो छोटे से क़स्बे भोजुडीह में रहकर भी

    कॉलोनी के यार-दोस्तों से मसख़री करते

    थोड़ी-बहुत तेलुगू सीख गए थे बाबा

    बाद तक टूटी-फूटी तेलुगू बोलकर वह झटपट कर लेते थे दोस्ती

    राँची या लोहरदग्गा के किसी बैंक या गैस वाले के साथ

    बाबा बोलते मैं विशाखापट्टनम को गंध से पहचानता हूँ

    और जब भी घूमने निकलते चाहे जा रहे हों दिल्ली

    बर्थ के नीचे बैग ठाँसते हुए बोलते :

    परवा लेदु

    रिटायरमेंट के बाद

    जब बेंगलूर आकर मेरे पास रहने लगे

    कंडक्टर छुट्टा नहीं लौटा पाता तो बाबा बोलते : परवा लेदु

    सड़क किनारे रुमाल बेचने वाले को टालते हुए कहते : परवा लेदु

    घर आए बढ़ई को हथौड़ा पकड़ाते कहते : परवा लेदु

    मैं सोचता बाबा क्यों बोलते हैं कन्नड़ राज्य में तेलुगू

    जहाँ हिंदी से चल जाता है मेरा काम

    और थोड़ा बहुत अँग्रेज़ी और इशारे से

    मसलन दुकानदार से मैं पूछता हूँ : हाऊ मच

    और फ़ोन से कर देता हूँ पेमेंट

    बांग्ला माध्यम में पढ़े बाबा

    अच्छी हिंदी बोलते हैं

    और टूटी-फूटी अँग्रेज़ी उड़िया और तेलुगू

    इस उमर में वह कन्नड़ सीख जाएँगे मुझे शक है

    ऐसे में वह क्या बात है जिसकी उन्हें परवाह नहीं

    जिसे वह दुहराते रहते हैं बार-बार तेलुगू में

    कोई नहीं जानता।

    स्रोत :
    • रचनाकार : सौरभ राय
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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