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पराए-से समय में

paraye se samay mein

चंद्रकांत देवताले

चंद्रकांत देवताले

पराए-से समय में

चंद्रकांत देवताले

और अधिकचंद्रकांत देवताले

    वह ख़ाली डिबिया को फेंकता है माचिस की

    और देखता है इतना सारा वक़्त और भरपूर जगह

    आकाश और कमरे के भीतर

    वक़्त मन मुताबिक़ उड़ता हुआ स्वतंत्र सफ़ेद

    और जगह हवा को इजाज़त देती हुई बेधड़क

    बंदिश नहीं चिड़िया के चहकने पर

    फिर भी कोई नहीं सिर्फ़ उसके सिवा

    उसने सोचा कहाँ जाऊँ

    इस अनंत होते आकाश के भीतर

    फिर गया मन के साथ दूर नीले में यात्रा पर

    और थक कर लौट आया वहीं

    उसी अजनबी जगह और पराए-से समय में

    उसने देखा इतनी सारी धूप

    और फिर भी पड़ोस में ही लेटा समुद्र बेवजह ख़ामोश

    मेज़ पर जाने क्यों पड़ा हुआ एक चाक़ू

    फाँसी के फंदे की तरह लटकता टूटा फ़ानूस

    और बाईं दीवार के बीचोबीच

    जैसे शताब्दियों से बंद लकड़ी का नक़्क़ाशीदार दरवाज़ा

    उसे लगा कुछ गुम रहा है

    और अदृश्य होता जा रहा है लगातार

    उस वक़्त उसकी परछाई को धुँधला कर रहे थे बादल

    और घड़ी बंद थी पुख़्ता जैसे कभी चालू नहीं थी

    उसने खिड़की से बाहर ताका दूर-दूर तक

    पानी था बेहिसाब पर पानी के बहने की

    खनकती हुई आवाज़ ग़ायब थी

    निष्प्राण होती-सी धूप और सिमटते-से समय में

    अब सफ़ेद गुंबद एक रहस्य-सा बन रहा था

    तभी दो पक्षी उड़ते हुए आए

    और गुंबद के इर्द-गिर्द मँडराने लगे

    वह हँसा राहत की साँस के साथ

    और सिगरेट की तलब ने

    उसे अज्ञात कुएँ से बाहर खींच लिया।

    स्रोत :
    • पुस्तक : जहाँ थोड़ा-सा सूर्योदय होगा (पृष्ठ 101)
    • रचनाकार : चंद्रकांत देवताले
    • प्रकाशन : संवाद प्रकाशन
    • संस्करण : 2008

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