एक-न-एक दिन प्रत्येक को इस कानन में आना ही है
लाखों में एक-आध यदा-कदा वन में न जाकर पौधे के समीप घुमाव चलते हैं।
किसी पापी को नहीं चाहिए ऐसे लोगों की स्थिति।
सिर में चैले की प्रकाश की क्रीड़ा
शीशे की दुकान में साँडो की जोड़ी।
तासे-तबलों की ध्वनि, रात्रि की छाया का नाच, लक्ष रावणी का यक्षगान
पत्रों की सेज पर मधुमक्खी की पीड़ा, रात्रि-भर बाँस की सीटी
मस्ती चढ़ी है डोम को—आकंठ पी आया है मटका भर तेज़ शराब
बस महाराज, इस पथ की मित्रता—पग-पग पर चुमकर हँसने वाला
तीखा काँटा,
किसी पापी को नहीं चाहिए ऐसे लोगों की स्थिति।
सैकड़ों में केवल एक के भाग में यह अबूझ बन नहीं यह तो
जन्म-मरण का रहस्य-स्थान।
पहली पब्लिक परीक्षा ऐसे लोगों के भाग्य में
कंठस्थ है अमर— झाड़ी, लता, पौधा, पेड़, यस्यज्ञान की बात कहे तो
बस खुल जाती लंबी तीखी ज़बान।
घनांधकार उठकर इन्हें निगल जाने पर मुझे ऐसे होता आभास :
ख़ुद नायक ही चला है आज धावे पर
रक्तिम सूली को लाता है जीवन के लिए।
बन से बाहर प्रतीक्षा करे चलो मोतिये के सौहार लाओ, सर्वज्ञ के आने पर
डालेंगे उनके गले में
है प्रतीक्षा कष्टदायिनी अति
उठते ही मुँह पर बासी पानी के छींटे दे चली करने क्षुद्र काम
आगे शरीर फैलाकर सोई छाया, उठ-बैठ फिर अलस भाव से पीठ के बल
सो रही, आओ घर
उचित है आसामी इस मूढ़ जनता के लिए
रास्ते के भगत का वाक्य वेद, इनकी बुद्धि मूसल बोने के समान
ख़ूब दिया धोखा मसीह
मान जाओ भगत
लोग क्रोधित हैं। प्राण सहित मुझे न छोड़ेगे यदि तुम न आओगे
साँप की शीश मणि हो आ राजा...
वह आया जलूस सुनो नंदीकोल की झंकार
पुलिस की 'विसल' लोहे की धार से भी तीखी
उधर देखो मोटर बाईसिकल! आया वर्दीधारी
अब क्या आई सवारी!
यह कैसा धोखा
हम एकत्रित हुए थे चक्रवर्ती आएगा सोच; आया पथ का भगत
लटके झुर्रीदार मुँह पर लिखी है हार मानो हफ़्तों बीते हों बिन देखे एक आस
इस दिगंबर चक्रवर्ती के पास चेतना नहीं क्या?
पहन आया है प्रश्नों का बाना...
कुछेक के लिए यह घना वन नहीं हरा-लाल बाग़
पैंट की जेब में हाथ डाल आने वाले इनके ऑटो में सिनेमा के गाने
पैंटों के ये बादल—जैसे आते हैं वैसे बह जाते हैं हल्के में —
ओह इनकी कैसी मौज
इनके पाँवो को उलझाने को गिराए नहीं रास्ते में धागे
ओह इनकी कैसी मौज
खिड़की के शीशे पर मुँह टिका खड़ी लड़की
रो रही है, वह देखो, सोलहवें वर्ष के दर्द को छाती में छिपा।
खिड़की के पार बन, बिल्ली बन ताक में लगा है—
सावधान आ न जाए पास घर के सामने का खंभा चढ़।
- पुस्तक : भारतीय कविता 1954-55 (पृष्ठ 173)
- रचनाकार : रामचंद्र शर्मा
- प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
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