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ओ! धरती

o! dharti

अरुण देव

अरुण देव

ओ! धरती

अरुण देव

और अधिकअरुण देव

     

    महाकवि जयशंकर प्रसाद के स्मरण में

    एक

    त्रिकुटी को कुतरता है कीड़ा
    हथेलियों से रेंगता हुआ धीरे-धीरे चढ़ आया है ऊपर
    शिराओं में छोड़ता हुआ विष

    चेहरे को ढँक लेती है कालिमा
    पलकों पर लद गई हैं आँखें, उनके भार से काँपते हैं पैर

    पृथ्वी की अँधेरी सुनसान रेत पर गिरती हैं रोशनियाँ उल्कापात की तरह

    सुबह के स्वागत में एक भी हरी पत्ती नहीं
    कहीं कोई बीज नहीं भविष्य का
    अंकुरण के मुहाने धुएँ से अटे पड़े हैं

    दो

    बोझिल पलकों पर टप-टप बजता है जल
    जो जलकुंभी के अंदर
    बाहर के पानी से डरकर छिपा था

    रेत पर जर्जर पीपल का एक पत्ता अपनी थकी शिराओं से पीता है उसे
    उसके होंठ ज़रा हिले हैं

    पत्ता खोजेगा अपने लिए एक टहनी
    टहनी को चाहिए तना
    मुझे लानी है गहरी धँसी हुई जड़ें

    रेत से एक आवाज़ आई है कोंपल की
    उसके रक्ताभ होंठों पर सूरज की उजली किरण है

    तीन

    मछलियाँ तट से उचक-उचक देखती हैं
    पिघलते पहाड़ को
    वह पूरा का पूरा समा जाएगा जल में

    जल से जल तक की उसकी यात्रा में जल ही बचेगा
    उस जल की अँजुरी से छलांग लगाकर बाहर आ गई है वह रंगीन शल्क वाली मछली

    जल का सूखा कण धीरे-धीरे आर्द्र होता है ऑक्सीजन से
    मछली के गलफड़े हिलते हैं धीरे-धीरे

    चार

    धरती पर पहले बारिश की चिकनाहट है
    उसने अपनी काया पर लपेट ली है बादलों की नज़र
    सूरज डूब रहा है उसके तारुण्य में

    धवल बादल थोड़ा ओट होते ही
    धरती की देह पर धारदार बरस रहे हैं
    भिगोते हुए उसके उतुंग पहाड़
    भर गए हैं उसकी घाटी में

    हरे पत्तों से ढँक लेती है वह अपना अधखुला अंग

    चंद्रमा सूरज की किरणों के जाल में घिरा
    चाहकर भी अपने दाग़ नहीं छिपा पाता
    अपनी चमक में खुद ही उसका गिरते जाना
    धरती ने देखा है

    पाँच

    चंद्रमा परिश्रम से थकी पृथ्वी को
    निर्वस्त्र कर देता है पूर्णिमा तक आते-आते
    वह बादलों को पार करके उतर आया है
    धरती के तन पर

    छह

    चंद्रमा के सपने के बाहर
    सुबह की खिली हुई धूप में धरती सुनहरी है
    पक्षियों का गान उसके कंठ के घाव को धीरे-धीरे भर रहा है
    पशुओं के देह पर उग आए हैं रोम
    हाथियों के दाँत बढ़ रहे हैं बेख़ौफ़

    बहुत दिनों के बाद लौटा है गिद्ध

    कौए अपने काले पंख देखकर ख़ुश हैं
    अभयारण्य से बाहर शेर की दहाड़ से धरती ख़ुश है

    बंदरों के लिए कोई भी जगह निषिद्ध नहीं
    मछलियाँ उछलती और गिर पड़ती हैं पानी में
    उनके छपाक-छपाक के बीच कहीं कोई जाल या काँटा नहीं

    चूजे अपनी पूरी उम्र पाने की उम्मीद में
    इधर-उधर फुदक रहे हैं

    धरती खिली, खुली, भरी-सी घूम रही है अपनी धुरी पर
    सूरज और चाँद से एक निश्चित दूरी पर

      
    स्रोत :
    • रचनाकार : अरुण देव
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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