तुम जिनके दरवाज़ों पर खड़े हो न्याय की प्रतीक्षा में
उनकी दराज़ों में पियरा रहे हैं फ़ैसलों के पन्ने तुम्हारी प्रतीक्षा में
एक
इंसाफ़ की एक रेखा खींची गई थी जिसके बीचोबीच एक बूढ़ा भूखे रहने की ज़िद के साथ पड़ा हुआ था। वह चाहता था उसकी गर्दन से गुज़रे वह रेखा लेकिन इंसाफ़ का तक़ाज़ा था कि ठीक उसके दिल से गुज़री वह आर-पार और लहू की एक बूँद नहीं बही।
लहू की एक बूँद नहीं बही!
और चिनाब से गंगा तक लाल हो गया पानी
इंसाफ़ बचा रहा और इंसान मरते रहे
हम एक फ़ैसले की पैदाइश हैं
और हमें उस पर सवाल उठाने की कोई इजाज़त भी नहीं।
दो
जो कुछ कहना है कटघरे में खड़े होकर कहना है
जो कटघरे के बाहर हैं सिर्फ़ सुनने का हक़ है उन्हें
यहाँ से बोलना गुनाह और कान पर हाथ रख लेना बेअदबी है।
तीन
जिसके हाथों में न्याय का क़लम है
उसे भी कहीं से लेनी होती है पगार
वह सबसे अधिक आज़ाद लगता हुआ
सबसे अधिक ग़ुलाम हो सकता है साथी
उस किताब से एक क़दम आगे बढ़ने की इजाज़त नहीं उसे
जिसे ग़ुस्से में जला आए हो तुम अपने घर के पिछवाड़े
उस पर सिर्फ़ नाराज़ न हो तरस खाओ...
चार
पुरखों ने कहा
तुम लोग साठ साल पहले जन्मी किताब पर इतना इतरा रहे हो?
मेरे पास छह हज़ार साल पुरानी किताब है जो छह करोड़ साल पुरानी भी हो सकती है।
फिर कोई पन्ना नहीं उलटा
और उस तलवारनुमा किताब ने उस जोड़े की गर्दन उड़ा दी।
उस किताब में इज़्ज़त का पर्यायवाची हत्या था
और न्याय का भी!
पाँच
पुरखों के हाथ तक महदूद नहीं थी वह किताब
न्यायधीश ने कहा
ऊँची जाति के लोग बलात्कार नहीं करते
वंश सुधार के लिए तो न्यायसम्मत है नियोग
यह जो अफ़सर बन के घूम रहे हैं लौंडे तुम्हारे
बड़जतियों की ही तो देन हैं
होंठों की कोरों से मुस्कुराया वह
और न्याय की देवी की देह से उतरकर वस्त्र
भँवरी देवी के पैरों की बेड़ी बन गए।
छह
क़ानून सिर्फ़ इंसानों के लिए है
इंसानों की हैवानी भीड़ का केस लिए यह क्यों आ गए तुम न्यायालय में?
एक आदमी की हत्या का फ़ैसला अभी अभी छह सौ पन्नों में टाइप हुआ है
एक हज़ार लोगों की हत्या का मामला पाँच साल बाद तय कर लेना चुनाव में।
सात
यह न्याय है कि यहाँ के फ़ैसले अहले-हवस करेंगे
मुद्दई लाख सर पटके तो क्या होता है?
अपराध का नाम इरोम शर्मिला है यहाँ
न्याय का नाम आफ्सपा!
आठ
उनका होना न होना क्या मानी रखता था?
वैसे इनमें से किसी ने नहीं की उनकी हत्या
शक़ तो यह कि वे थे भी कभी या नहीं
थे तो अपराधी थे और सिर्फ़ पुलिस के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता अपराधियों को
लक्ष्मणपुर बाथे न पहला है न आख़िरी
न्याय के तराजू की कील
न जाने कितनी सलीबों पर ठुकी है।
नौ
इस दरवाज़े से कोई नहीं लौटा ख़ाली हाथ
वे भी नहीं जिनके कंधों पर फिर सर नहीं रहा
दस
इतिहास ने तुम पर अत्याचार किया
भविष्य न्याय करेगा एक दिन
दिक़्क़त सिर्फ़ इतनी है कि रास्ते में एक वर्तमान पड़ता है कमबख़्त।
- रचनाकार : अशोक कुमार पांडेय
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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