कोई पहाड़ की चोटी पर
तप्त रजत-द्रव कुंभों में भर
मानों उँड़ेलता हो सत्वर
झर झर झर झर झरता निर्झर
गंगा-तरंग-बीच नहाकर
हाथी सूँडों में जल भरकर
मानों फेंक रहे हैं बाहर
झर झर झर झर झरता निर्झर
सद्यः पतित हिम संतत गलकर
बहता मन्मथ-देह-भस्म धर
मानों लाता साथ मिलाकर
झर झर झर झर झरता निर्झर
नीहार-सरोवर से सुंदर
सुर युवती जो उठी नहाकर
मानों उसकी भीगी चादर
झर झर झर झर झरता निर्झर
जगमग जगमग सरस चमककर
झर झर झर झर झरता निर्झर
सानु शिखर को जोड़ परस्पर
तुरी सदृश सब भोर लपककर
मानों पारस कुंभ फूटकर
बढ़ता हो, यह भ्रम उपजाकर
मरकत-निभ शाल में घुसकर
आसपास के स्थल चमकाकर
दर्शक जन की दृष्टि चुराकर
वसुंधरा के हरित-वसन पर
मौक्तिक-रज की जरी लगाकर
दर विकसित सुम अंजलि में भर
परिमल तन पर भरकर उठकर
पथ रोके तरु-मूल रगड़कर
पके फलों को गिरा गिराकर
फलरस चखकर बल वर्धनकर
सुम भूषण से दिल पुलकित कर
दिशा-वलय स्मिति मे उजला कर
कहीं किसी का रोध न पाकर
स्वेच्छा से कुछ देर विचर कर
धीरे गंगा की गति चलकर
वासक-सज्जा-सी शोभा धर
चंद्र-क्रांति में, मैत्री-निर्भर
प्रकृति की रचित पुलिन-शयन पर
जाकर सुखशायित है निर्झर।
- पुस्तक : आधुनिक तेलुगु कविता - प्रथम भाग (पृष्ठ 214)
- संपादक : चावलि सूर्यनारायण मूर्ति
- रचनाकार : पल्ला दुर्गय्य
- प्रकाशन : आंध्र प्रदेश साहित्य अकादेमी
- संस्करण : 1969
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