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नवीन सागर

nawin sagar

रामकुमार तिवारी

रामकुमार तिवारी

नवीन सागर

रामकुमार तिवारी

और अधिकरामकुमार तिवारी

     

    आँखों में रंग
    जैसे दो कबूतर काले और सफ़ेद
    भूलकर गुफ़्तगू
    बैठे हों चुपचाप

    शाम किसी जीवन का दुख
    आ जाता इतने पास
    कि पूरी शाम उदास

    डूबते रंगों के साथ
    तार-तार आकाश

    रह जाती शेष सिर्फ़ लकीर
    चिड़िया की उड़ान से छूट गई जो
    उसे ढील देते-देते हो जाते निढाल

    रात किसी पहर
    अंदर से कोई चिड़िया अनजान
    चोंच में तिनका लिए उड़ती
    सिलती चिथड़ा-चिथड़ा आकाश

    कमरे में उसके लिए बजती
    नुसरत फ़तह अली ख़ान की आवाज़
    आकाश में खुलती खिड़कियाँ
    दिशाओं पर द्वार

    लोगों के पक्ष और अपने विपक्ष में
    इतने दृढ़
    कि घर को पेड़ बनाकर रहते
    उस विश्वास के साथ
    जो उजाड़ में दुनिया बसाता है लगातार

    तैरना आता नहीं
    किसी भी झील में उतर जाते
    हाथ-पैर मारते नहीं
    बस डूब जाते

    जब-जब मछुआरों के जाल से निकलते
    कभी क़सम नहीं खाते

    देखते अपने ही अंदर, जब
    वह ऊष्मा नहीं पाते
    जो लोगों को चुपचाप प्यार करती है
    दुखी हो जाते

    विक्षिप्त और हास्यास्पद हो गईं ज़िंदगियों के लिए
    प्रार्थना से भर जाते

    धरती के टूटे सपनों की याद आते ही
    आँखों में उठे बादल
    किसी प्यास की ओर उड़ जाते

    जहाँ होना चाहिए वहाँ होते
    प्रतिरोध करते
    लोगबाग लौट जाते
    जगह-जगह अकेले रह जाते

    होते-होते हो जाते इतने अकेले
    कि अंदर पूरी दुनिया बसाते
    फिर भी अनगिन कोने सूने पाते
    न जाने किन-किन ग्रहों पर जाते
    और-और जीवन पुकारते
    अंत में शब्दों के पास आते
    रातों भटकते दरवाज़ा नहीं पाते

    किसी का अपराध
    स्वयं के किए की तरह, घिर आता
    उसी से बिंध जाते

    तब ‘मोर’1 कहानी से दौड़े-दौड़े ‘हुल्ले काछी’2 आते
    उन्हें बचाते
    ‘गनेसी’3 की तरह घर लौटते
    जगह-जगह देखते ‘अँधेरे प्रहसन’4
    के आवाज़ निचुड़ जाते

    सदियों चौकी पर पड़े रहते
    ऋतुएँ खिड़की पर बैठी-बैठी चली जातीं
    आँखों की पुतलियों तक फैले
    शून्य के शून्य में निरावेग पड़ी रहतीं उड़ानें

    उन्हें देख
    सहम जाता घर
    उदास हो जाते पेड़
    चिड़ियाँ अपने घोंसलों को छोड़
    बीच-बीच में देख जातीं

    एक दिन पूछते-पूछते ‘रामचरण’5 आते
    साब, आपकी तबीयत के बारे में सुना
    जल्दी अच्छे हो जाइए
    ऑफ़िस में मन नहीं लगता

    रामचरण की आँखों में उतरा हल्का पानी
    उनके जीवन में हिलुर जाता
    उठती लहरें चली जाती
    न जाने कितनी उदासियों के पार

    एकाएक
    अचंभे की तरह चौकी पर बैठते
    कहते बीड़ी पिलाओ

    रामचरण ख़ुशी-ख़ुशी से बीड़ी सुलगता
    अस्पताल के डॉक्टर देख-देख मुस्कुराते

    पी जा रही बीड़ी
    अंतिम बीड़ी होती है
    इसके बाद कभी नहीं पिएँगे
    इस बात को सभी पहली बार ही सुनेंगे

    बातें करते-करते उठते
    दिशाओं के साथ पलटते
    कहते हुए कि चलो कहीं चलते हैं!

    हाथ-मुँह धोते
    रंगों में ढूँढ़ते अपनी सबसे पसंद की शर्ट
    उमंग से भरे जब बाहर निकलते
    तो लगता जैसे
    चित्र में बने घर से कोई एकाएक
    निकल पड़ा हो
    घट गया हो जादू
    अपनी कला पर ख़ुशी से कोई
    अजन्मा चित्रकार रो पड़ा हो

    ऊपर आकाश में बादल
    बच्चों के लिए चित्र बनाते
    पेड़ के साथ-साथ गुनगुनाते
    फुटपाथ पर भुने हुए भुट्टों की गंध
    आगे-आगे चलती
    खेलते बच्चों से भरे मैदानों से गुज़रते

    अपनी मस्ती में कोई बच्चा
    छोड़ देता धागा ग़ुब्बारे का
    रंगों से भर जाता आकाश
    जिसमें बचपन की उड़ाई पतंग ढूँढ़ते

    जगह-जगह से आते
    हँसते-हँसाते
    जीवन की कथाएँ सुनाते
    शब्दों को आकाश बनाते
    आकाश को शब्दों में लाते
    साँस-साँस हो जाते
    कहीं कोई रच रहा हो
    उसी में जीवन पाते
    देर रात गए जब घर लौटते
    सच को अकेला पाते
    न जाने कितने झूठों को सच बनाते
    बच्चा हो जाते

    दोस्तों की पी शराब की बू जब
    उनके मुँह से आती
    अचंभित हो जाते

    फिर क्या, तरह-तरह के अचंभों के
    अनगिन क़िस्से सुनाते
    न जाने कहाँ-कहाँ से
    भूत-प्रेत आ जाते
    उनसे करतब करवाते
    सुनने वालों के रोंगटे खड़े हो जाते
    लोग रात-रात भर पेशाब नहीं जाते

    सुबह
    असाध्य से असाध्य रोगों के निदान की
    दिनचर्या बताते
    नुस्ख़े लिखवाते
    थोड़ी देर बाद स्वयं सो जाते

    जीवन में जो है
    वह होने का अतिरेक है

    बच्चों से बातें करते-करते
    जब पिता की याद आती
    उन्हें उनकी कहानी सुनाते
    पिता अद्भुत कलाकार थे
    अपने ही तरह के विचित्र
    सुबह रंग, कूची लेकर निकल जाते

    जंगल में किसी उजाड़ मंदिर की दीवार पर
    दिन भर चित्र बनाते
    शाम जब घर लौटते तो अपने को
    घर, मुहल्ले में नकारा पाते
    यह देख-सुन दुखी हो जाते
    अपने हाथों से बनाई बाँसुरी को
    रात-रात भर बजाते

    उन्हें दूसरे तो ठीक
    मैं भी नहीं समझ पाया
    न मुझे बाँसुरी बनाना आता
    और न ही बजाना

    जब उन्हें पिता की बहुत याद आती
    बाज़ार चले जाते
    पास में जितने पैसे होते, उनसे
    रंग, काग़ज़ और कूची ले आते
    बेटे को पास बैठाकर समझाते
    धरती पर चित्रकार बहुत कम हैं
    इतना कहते-कहते चुप हो जाते

    जब भी कोई बच्चा 
    बीच का रास्ता अपनाता
    घोर अनिश्चय से भर जाते
    क्या होगा, कहते हुए कहीं दूर छिटक जाते

    बच्चों की इच्छाओं में अभावों से भिरे
    यहाँ-यहाँ जाते
    ‘पैसा-पैसा’ चिल्लाते

    पैसों को वहीं छोड़
    कविता लेकर घर आ जाते
    सभी को बैठाते पास
    डूब-डूबकर सुनाते

    परीक्षा के दिनों में जब
    बेटा कमरा बंद करके पढ़ता
    पढ़ते-पढ़ते रुकता
    एकाएक बनाता कोई चित्र
    बाहर से जब वे आते
    उन्हें दिखाता
    सहसा विश्वास नहीं होता

    हाथों में चित्र लिए
    कमरे में जगह-जगह रखते
    हर कोण, हर दूरी से देखते
    होते इतने ख़ुश कि बह-बहकर
    अनजान कोनों तक पहुँचते

    रात गहरी नींद सोते
    सपने में छूटा हुआ चरित्र लिए चेखव आते
    और अजब भाव लिए शमशेर

    एकाएक टूटती नींद
    सुनते कहीं कोई चीख़
    हड़बड़ाकर उठते
    अँधेरे में देखते
    ऊपर आकाश में तारा
    जलता हुआ सिरा बीड़ी का

    उसी के आस-पास
    मुक्तिबोध का चेहरा ढूँढ़ते
    कहते दाऊ!
    राजनीति इतनी हो गई कि
    सब कुछ बिला गया
    किसकी क्या राजनीति है
    यह तो पता नहीं चली
    हाँ, जीवन जो जिया
    वह यह है!

    स्रोत :
    • पुस्तक : अपनी परछाईं में लौटता हूँ चुपचाप (पृष्ठ 92)
    • रचनाकार : रामकुमार तिवारी
    • प्रकाशन : आईसेक्ट पब्लिकेशन
    • संस्करण : 2020

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