(पर)लोक-कथा
एक समय की बात है। एक बीज था। उसके पास एक धरती थी। दोनों प्रेम करते थे। बीज, धरती की गोद में लोट-पोट होता, हमेशा वहीं बने रहना चाहता। धरती उसे बाँहों में बाँधकर रखती थी और बार-बार उससे उग जाने को कहती। बीज अनमना था। धरती आवेग में थी। एक दिन बरसात हो गई और बीज अपने उगने को स्थगित नहीं कर पाया। अनमना उगा और एक दिन उगने में रम गया। अन्यमनस्कता भी रमणीय होती है। ख़ूब उगा और बहुत ऊँचा पहुँच गया। धरती उगती नहीं, फैलती है। पेड़ कितना भी फैल जाए, उसकी उगन उसकी पहचान होती है।
दोनों बहुत दूर हो गए। कहने को तो जड़ें धरती में रहीं, लेकिन जड़ को किसने पेड़ माना है आज तक? पेड़ तो वह है जो धरती से दूर हुआ। उससे चिपका रहता, तो घास होता।
पेड़ वापस एक बीज बनना चाहता है। धरती अपना आशीष वापस लेना चाहती है। पेड़ को दुख है कि अब वह वापस कभी वही एक बीज नहीं बन पाएगा। हाँ, हज़ारों बीजों में बदल जाएगा। धरती ठीक उसी बीज का स्पर्श कभी नहीं पा सकेगी। पेड़ उसके लिए महज़ एक परछाईं होगा।
जीवन में हर चीज़ का विलोम नहीं होता। रात एक अँधेरा दिन नहीं होती, और दिन एक उजली रात नहीं होता। चाँद एक ठंडा सूरज नहीं, और सूरज एक गरम चाँद नहीं है। धरती और आसमान कहीं नहीं मिलते, कहीं भी नहीं।
मैं पेड़ के बहुत क़रीब जाता हूँ और उससे कहता हूँ, सुनो, तुम अब भी एक बीज हो। वही वाला बीज। क़द के मद में मत आना। तुम अभी भी उगे नहीं हो तुम सिर्फ़ धरती की कल्पना हो।
सारे पेड़ कल्पना में उगते हैं। स्मृति में वे हमेशा बीज होते हैं।
- रचनाकार : गीत चतुर्वेदी
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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