माँ के नाम की पर्ची

man ke nam ki parchi

ज्योति रीता

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माँ के नाम की पर्ची

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    माँ पर्चियों पर ढूँढ़ती रही अपना नाम

    पिता के नाम के साथ

    कोई छेड़छाड़ कभी नहीं हुई

    माँ हर पर्चियों से विलुप्त थी

    नौ माह के गर्भ

    और प्रसव-वेदना के बाद

    माँ होने का हक़ मिला था

    खाने की प्लेट

    गंदे कपड़े

    ड्यूटी के बीच

    माँ ठौर तलाशती रही

    माँ को सुस्ताने का वक़्त

    गहन रात्रि में मिलता

    माँ ढूँढ़ती कोई साथी

    सीने से लगकर

    जहाँ कही-सुनी जा सके आत्म-वेदना

    माँ का दुःख उसकी छाती में

    बरछी की तरह धँसा रहा

    माँ नहीं निकल पाई

    कभी उस दुःख से

    माँ के आँचल से हाथ-मुँह पोंछते हुए भी

    हम अनभिज्ञ रहे

    जबकि सदियों से आँचल नम था

    माँ अपने आँसुओं को छिपाने का

    भरसक प्रयास करती

    रोते हुए आसमान निहारती

    जैसे किसी अदृश्य आत्मीय से करती हो बात

    माँ काग़ज़ पर उतारने लगी थी शब्द

    काग़ज़ से कराहने की आवाज़ आती

    देर रात काग़ज़ सिसकता फड़फड़ाता

    सुबह तक काग़ज़ सूख जाता

    माँ सूखे काग़ज़ की तरह सबके सामने खड़ी होती

    मज़बूती के साथ

    हर मुश्किलों से लड़ती हुई पहाड़ हो गई थी माँ

    एक दिन मध्याह्न भोजन के बाद

    सब दरकिनार कर उठा लिया था झोला

    रबड़ से घिसती रही तुम्हारा नाम

    माथे पर जैसे गोदने की तरह तुम छपे रहे

    हर वक़्त मैं पकड़े रहा माँ की ही अँगुली

    पर नाम तुम्हारा था

    स्कूल में दाख़िले के वक़्त भी तुम्हारा ही नाम पूछा गया

    डॉक्टर की पर्ची पर भी तुम्हारा ही नाम था

    ज़मीन-खेत-खलिहान सब तुम्हारे नाम था

    माँ ढूँढ़ती है

    अपना घर

    अपना पता

    अपने नाम की एक अदद पर्ची!

    स्रोत :
    • रचनाकार : ज्योति रीता
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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