मूर्धन्य ष के लिए एक विदा-गीत
murdhany sh ke liye ek wida geet
बेचारा मूर्धन्य ष
जो ऋषि-महर्षि में ही बचा हुआ है
और राष्ट्र में षड्यंत्र में और षट्कोण में
और ऐसी ही दो-चार अजीबोग़रीब जगहों में
बेचारा मूर्धन्य ष
जिसकी आकृति भर बची है
एक तपस्वी आकृति
लिपि में
लिखित भाषा में
बेचारा मूर्धन्य ष
जिह्वा से जो गिर गया रास्ते में
बोली से बिछड़ गया
टोली से फिसल गया
डूब गया अँधेरे में
लिपि की झाड़ी में फँसा टिमटिमाता
डूब जाने दो
टूटा तारा है एक
दुख न करो
डूब जाने दो
ध्वनि के पीछे उसकी आकृति
डूब जाने दो
भाषा के अतल में
भाषा के जल में
विस्मरण नहीं
अनंत आकृतियों की स्मृति।
- पुस्तक : प्रतिनिधि कविताएँ (पृष्ठ 100)
- संपादक : कुमार मंगलम
- रचनाकार : ज्ञानेंद्रपति
- प्रकाशन : राजकमल पैपरबैक्स
- संस्करण : 2022
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