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मुक्ति

mukti

स्नेहमयी चौधरी

और अधिकस्नेहमयी चौधरी

    जब दीवारें अनात्मीयता उगलने लगतीं

    वह उठ कर चल देती दूर-दूर

    एक बड़े बाज़ार में

    जहाँ दुकानों, गहनों, कपड़ों की डिज़ाइनों,

    रंगीन लड़कियों के चेहरों पर

    अपने को बिखेर

    स्वयं एक कोने में खड़ी

    दर्शक की भाँति ताकती रहती सब कुछ।

    फिर एक पुराने बरगद के नीचे बैठ जाती

    उस ज़मीन पर, जो सबकी थी,

    पर उसकी नहीं।

    मोटे-मोटे चींटें झड़ कर

    काटने लगते,

    अब कहाँ जाना है?—सोचती!

    उसने बच्चे के लिए

    एक रॉकेट ख़रीदा है

    जो किसी और को नहीं दे सकती।

    यह मजबूरी उसे अपनी ही निगाह में

    दयनीय बनाती हुई

    वापस ले जाती।

    पतली पगडंडियाँ, मुड़तीं, जुड़तीं,

    अपनी जटिलता में उलझतीं

    वहीं पहुँचती रहीं—घूम-घूम कर,

    जहाँ से चली थीं।

    स्रोत :
    • पुस्तक : पूरा ग़लत पाठ (पृष्ठ 32)
    • रचनाकार : स्नेहमयी चौधरी
    • प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
    • संस्करण : 1976

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