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मुक्ति, मुक्ति दो प्रभु

mukti, mukti do prabhu

ज्योति रीता

ज्योति रीता

मुक्ति, मुक्ति दो प्रभु

ज्योति रीता

और अधिकज्योति रीता

    अपनी दुनिया बदलने निकली स्त्री

    कब बाज़ारू हो जाती है

    स्त्री से पहले समाज

    समाज से पहले चौक पर

    खड़े निठल्ले लोगों को पता चलता है

    स्त्री अपनी बनाई कोठरी में जब आराम करती है

    मोहल्ले के चूल्हों में आग उसी वक़्त भभकती है

    वह बढ़ते क़दमों से हर गिरह कुचलती

    बेबाक़ हौसलों से जब आगे बढ़ती है

    उसी वक़्त पेट की मरोड़ से जाने

    कितनों की अंतड़ियाँ सूख जाती हैं

    कंधे पर पर्स लटकाए

    क़तार में खड़ी स्त्री

    जानती है तुम्हारा सच

    पासा फेंककर भी तुम्हारे हाथ

    बाज़ी नहीं आएगी

    मंच के बाद कहते—

    युवा कवियों के लिए कुछ भी करने को तैयार हूँ

    हमारा दरवाज़ा चौबीसों घंटे खुला है

    स्वाभिमान से लबरेज़ स्त्री

    अकड़कर गुज़र जाती है

    तुम्हारे प्रगतिशील विचार के

    धुएँ का छल्ला बनाकर उड़ा देती है

    तिरछी निगाह से देखते हुए तुम कहते—

    अभी कविताएँ कच्ची हैं

    पकने में वक़्त लगेगा

    बताओ कवि—कितना पकाऊँ

    इतना कि तुम सही से निगल सको

    बिना किसी लब्बोलुआब के

    कमाल है स्त्री सशक्तीकरण

    कमाल है स्त्री सशक्तीकरण पर बोलने वाले

    तथाकथित प्रगतिशील विचारक

    मुक्ति, मुक्ति दो प्रभु!

    स्रोत :
    • रचनाकार : ज्योति रीता
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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