जल में ही प्राण
जल न हो तो प्राण
निष्प्राण
जल ही प्यास
जल ही मिटाती उसकी भूख
जल के भीतर
जल को ही... धकेलती
गति पकड़ती मछली
वहीं उसका आश्रय
वहीं उसे विराम
वहीं उसकी हलचल
वहीं उसकी विश्रांति
जल में आकाश की छाया
आकाश में जल की माया
जल के भीतर
व्योम रचती
जैसे हो वह पानी की पंछी
मछली
स्त्री, तुम भी इसी तरह
समाज में रहकर
समाज को परे ढकेलते
बिना किसी अपराधबोध के
अपना आकाश गढ़ना
अपने संपूर्ण अस्तित्व संग आगे बढ़ना
- रचनाकार : विशाखा मुलमुले
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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