मुझे कब चाहिए था ये आकाश
mujhe kab chahiye tha ye akash
मुझे कब चाहिए था ये आकाश
चाहिए तो मुझे बादल भी नहीं था
मुझे तो धरती का वो टुकड़ा चाहिए था
जहाँ हम तुम आसमान की चादर ओढ़े लेटे रहते
ना होता नरम घास का बिछौना
फूलों के बाग़ीचे का पड़ोस भी ना मिलता
बरगद की छाँव थोड़ी दूर ही रहती
पर तुम होते
तमाम सिलवटों के बाद भी मुस्कुराते
धूल से भरी चप्पलों में हम
धरती का हर कोना नापते
पेड़ों की उमर जाँचते
सीखते भाषा पंक्षियों की
नदियों की कलकल बाँटते
मुझे कब चाहिए था ये आकाश...
तुम्हें बांसुरी की आवाज़ बहुत पसंद है ना
मेरे मन में एक धुन बजती है
अगर सुन सको तो
समझना
मुझे दुनियावी बातों से वितृष्णा हो गई है
जिस तरणी के भरोसे छोड़
तुम आगे बढ़ रहे हो
उसमें एक छेद है
पानी भरता जा रहा है
नाव डूबने को है
धरती का वो टुकड़ा मेरी प्रतीक्षा में है
मैं भी तो कब से तुम्हारी प्रतीक्षा में हूँ
अब भी आ जाओ
हरसिंगार झरने से पहले
उसी धरती पर सुला दो मुझे
आकाश की क़िस्मत में हरसिंगार नहीं तारे हैं
और मुझे कब चाहिए था ये आकाश…
- रचनाकार : पल्लवी विनोद
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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