मुझे इस धरती को पढ़ने से डर लगता है
mujhe is dharti ko paDhne se Dar lagta hai
दूधनाथ सिंह
Doodhnath Singh
मुझे इस धरती को पढ़ने से डर लगता है
mujhe is dharti ko paDhne se Dar lagta hai
Doodhnath Singh
दूधनाथ सिंह
और अधिकदूधनाथ सिंह
एक
मुझे इस ठंडी हवा से डर लगता है
मुझे इस भयावनी शांति से डर लगता है
मुझे निज के अनंत कोलाहल से डर लगता है
मुझे मुर्दा लोगों के हँसने-गाने से डर लगता है
उनकी करुणा से डर लगता है
उनकी हमदर्दी से डर लगता है।
दो
शामें बेहद बदनसीब
रातें बेहद सुशील
धूप बेहद निर्दयी
ये फूल बेहद बुज़दिल...
मुझे भीड़ भरी औरस सड़कों, नंगी दुकानों से डर लगता है
मुझे काने-कुबड़े, अंधे बीमार लोगों की आँखों से डर लगता है
मुझे घर-घर में सोए मासूम बच्चों से डर लगता है।
तीन
उदासी बेहद ख़तरनाक
और ख़ुशी बेहद बतियाती
मुझे इस धरती को पढ़ने से डर लगता है
काल बेहद बुर्जुआ
और आयु बेहद विश्वासघाती...
मुझे डूबते अँधेरों और रौशन गुनाहों से डर लगता है
मुझे सुख से, सुविधाओं से—अंधी आशाओं से डर लगता है
मुझे बुद्-बुद् उच्चारण से, सजी-बजी भाषा से डर लगता है
चार
इतिहास की विपन्नता और
सभ्यता का स्वाद
सृजन की व्यर्थता
और सुबह की याद
कर्म की विवशता
वह भी जी चुकने के बाद...
मुझे इतना लंबा जीवन जीने से डर लगता है
मुझे शून्य की अहेरी शिकायत से डर लगता है
मुझे विज्ञान की भेड़िया हिफ़ाज़त से डर लगता है
पाँच
हज़ारों सालों से सूरज मरा हुआ पड़ा है
हज़ारों सालों से आकाश की छाजन चू रही है
हज़ारों सालों से लोग मरे हुए पैदा हो रहे हैं
हज़ारों सालों से ताज़ी हवा के इश्तहार साँसों में छपे हैं
हज़ारों सालों से धूप का इतिहास, धरती की छाती पर लिखा है...
मुझे इस धरती को पढ़ने से डर लगता है
मुझे क्षितिज की भूरी दीवारों से डर लगता है
मुझे आसमान की निगाहें कुतरने से डर लगता है
यह दुनिया
एक फ़ाहशा औरत की अँधियारी डाली है—
मुझे इस फ़ाहशा के प्यार में यों ही
गुज़रने जाने से डर लगता है
बेहद।
- पुस्तक : अपनी सदी के नाम (पृष्ठ 13)
- रचनाकार : दूधनाथ सिंह
- प्रकाशन : साहित्य भंडार
- संस्करण : 2014
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