लाल दीवारों पर चावल के सफ़ेद रंग से डाली गई लाइनें...
ईजा देर तक पीसती रही
सिलबट्टे में चावल
ताकि डाल सके
लाल गेरू पर
सफ़ेद होरे
रच सके नीम रातों के बीच
एक उत्सव।
हम बहुत सीधे होरों के लोग हैं
अपनी ही लीक चलते हुए
दूसरी लकीर के समानांतर
बिना किसी की दुनिया तबाह किए
रचते हैं अपने उत्सव हम
सुनो
तुम्हारे घरों की बिजली-झालर में
जो रोशनी चमक रही है
उनमें हमारी नदियों का
रक्त भरा है
उनमें हमारे खेतों की राख है।
इधर हमारे गाँव में
लाल मट्टी की लिपाई में पड़े
सफ़ेद होरे
धान की पुवाली गंध लिए
लिखते है मनुष्यता की भाषा
शहर के कानफाड़ू शोर के पार कहीं
जलता है चीड़ का छिलुक-छ्यूला
बारूदी गंध से दूर
हम लीसे की महक में महकते हुए
रात के भीतर चले जाते हैं
बेझिझक
फ़िल्मी बाज़ारू धुनों में रचे गए
बिकाऊ भजनों से बेख़बर
झींगुरों की टोलियाँ कसती हैं सुर
रँभाता है घुरड़ कहीं
देर रात तक
टिक-टिक करती है पित्ती
झाल-झंखाड़ों में
सीधे होरे इतने सीधे भी नहीं
वे अपने साथ
कई-कई होरे लिए चलते हैं
कोई होरा किसी होरे को नहीं काटता
बल्कि हर होरा
एक दूसरे के सहारे ही रचा जाता है।
- रचनाकार : अनिल कार्की
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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