चाँद पगडंडी है
जो मेरी इस खिड़की से दूर
एक झील को जाती है
उजास नरम घास-सा उगा है किनारों पर
आसमान बनने लगा है रात का अँधेरा समंदर
पानी पर डोलती चाँद की परछाई है ये रास्ता
पेड़ पर झूलती अँधेरी पत्तियों के बीच से
एक लाल फूल टूटकर गिरता है रोज़
मैं गुज़रते हुए चाँद से
एक फूल की परछाई
उठा लेती हूँ अक्सर
और चलती चली जाती हूँ
इस रास्ते पर
जिस पर मेरे पैर बढ़े तो रस्ता पानी हो गया
और निशान उनके
सितारों से झिलमिलाने लगे
जिन्हें दूर से एक साथ देखने पर
वह चाँद से नज़र आए
और चाँद एक मुड़ी हुई पगडंडी-सा
रात में
कितनी दफ़ा मेरा आना-जाना होता है
इस पर
कितने फूल शाम में टूटकर
पंखुरियों से बिखरते हैं
मुझ पर
और कितनी ही पंखुरियाँ
फूल बनकर आ लगती है
मेरे दिल पर
आज फिर ढलता सूरज इशारा कर गया
चाँद की ओर
लहर अँधेरे की चाँद पर आ-आकर लौटती रही
उठती-गिरती साँसों के बीच
रह-रहकर जान आती और जाती रही
याद में तुम्हारी
एक उजले नरम क़ालीन पर
चलती चली जा रही हूँ
रास्ते नहीं पार कर रही
रास्ते पार हो जा रहे अपने से ही
गुज़रकर मुझसे
चाँद वह पगडंडी है
जिस पर छपे हैं आँखों के नम पाँव
मेरा सारा जीवन
दो मुलाक़ातों के बीच खिंचा
एक लंबा इंतज़ार है
किसी बिछोह से जन्मी मैं
मिलन को निकली हूँ फिर
कभी आँख तो कभी कान पर महसूस होता है
वह रास्ता
जो सिर्फ़ तुम्हारी ओर जाता है
आख़िरी पहर रात के
चाँद तनी हुई रस्सी में बदल जाता है
जिस पर मेरी आँखें
साँस रोककर चलती है
आँखों से बाहर निकलकर प्रतीक्षाएँ देखती हैं
खेल जीवन-मृत्यु का
आँखें अकेली ही चलती चली जाती हैं
जीतने मृत्यु को
इस रास्ते का एक सिरा जिसे तुमने अपने
क़दमों के नीचे दबा रखा है
चाँद ही का अंतिम छोर है
जिसके आगे एक झील
समंदर-सी महसूस होती है
और ये खिड़की जहाँ से चाँद खुलता है
मेरे आगे
उस झील का अंतिम छोर है
जहाँ से पलटकर
मैं झील के समंदर हो जाने की
इस यात्रा पर निकली हूँ
लहर में मिलती लहर की तरह
तुम्हारा ख़याल मेरे ख़याल में मिलता है
और उस मिलन से अलग होते हैं ऐसे
जैसे लहर से कोई लहर निकलती है
चाँद के रास्ते
हम लहरों से मिलते और छूटते रहते हैं।
- रचनाकार : ममता बारहठ
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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