मेरी यात्रा का ज़रूरी सामान
meri yatra ka zaruri saman
आज मैं एक लंबी नींद से उठी हूँ
और मुझे ये दिन ही नहीं ये ज़िंदगी भी बिल्कुल नई लग रही है
मैं नहीं देखना चाहती
सोचना भी नहीं चाहती कि मैंने अपनी ज़िंदगी कैसे गुज़ारी है
वह पुरुष कहाँ होगा
जिसे मैंने
चाय के हर प्याले के साथ चोरी-चोरी चुस्की भर पिया
और वह पुरुष जो मेरा मालिक था
उसकी परेशानियों और इच्छाओं को समझना
मेरा कर्त्तव्य था
जैसे कि मैं
कोई रेलगाड़ी की सामान ढोने वाली बोगी थी जिसमें वह
जब चाहे अपनी इच्छाएँ और परेशानियाँ जमा कर सकता था
मेरी यात्रा में हैं उन्हें उसकी मर्ज़ी के स्टेशन तक ढोती
जहाँ से उतरकर वह यूँ विदा हो जाता
जैसे कोई मुसाफ़िर चला जाता है
मैं रात भर गिनती रहती मेरी छत से गुज़रने वाले हवाई जहाज़ों को
और सोचती उनमें बैठे यात्रियों और उनकी पत्नियों के बारे में
जो शायद घर पर उनकी सलामती की दुआएँ माँग रही होंगी
जबकि उनकी सुखद यात्रा के कई स्पर्श और
चुपके से लिए हुए चुंबन
उन जहाज़ों से मेरी छत पर गिरते रहते
और रेंगते हुए मेरे बिस्तर तक आ जाते
इस तरह मेरी चादरों पर कढ़े फूलों के रेंग फेड हो जाते
तब माचिस की डिबिया की सारी तिलियाँ
सीलन से भर उठती
यही एक मात्र प्रतिरोध था जो मैंने
किया अपने सीमित साधनों से
पर आज मैं निकली हूँ घर से
अपनी मर्ज़ी के सब फूल मैंने अपने
सूटकेस में रख लिए हैं
यही मेरी यात्रा का ज़रूरी सामान है।
- पुस्तक : मेरी यात्रा का ज़रूरी सामान (पृष्ठ 15)
- रचनाकार : लीना मल्होत्रा राव
- प्रकाशन : बोधि प्रकाशन
- संस्करण : 2012
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