सबने चाहा मान, उच्चासन, अधिकार भोग,
पहले सृष्टि पर पाया स्रष्टा का नियोग।
अंबर ने जताया प्रशांत स्वर में
“वांछित आसन मुझे हे विधाता पहले दो
सारी सृष्टि के ऊर्ध्व में।”
अंशुमान दिवाकर ने किया आवेदन
“मेरे विहार हेतु मिले यह अनंत आँगन
इस गगन के वक्ष पर
पूरा करूँगा मैं तुम्हारा लक्ष्य।”
चंद्र का निवेदन था—“मेरी वही अभिलाष
वही व्योम दें, नैश मैं करुँगा मैं अधिवास।”
वारिद ने माँगा—“मुझे दो यह वर
मुझे सूर्य-चंद्र जयी करो
दिनरात जब उगें, मुझे देखें!
सविता शशांक जहाँ रहें संत्रास अप्रकाश में।”
प्रभंजन ने जताया—“प्रभु मुझे करे धनंजय
वज्र विद्युत्-इरम्मदमय हो चाहे धन,
उसके वक्ष में जगा कर कंपन
उड़ाऊँ जहाँ उनकी इच्छा विश्व पथ में।”
स्रष्टा के पास तो जो चाहा जिसने,
पलक झपकने में वही पाया उसने।
मगर तुम हो मौनावती माटी, तब कहीं
एक शब्द भी उच्चारण किया नहीं
टालकर स्वर्ण सुयोग।
सब के पैरों तले फैला मलिन आसन,
न बता हृदय का आर्त अकिंचन।
तुम्हारी वह नीरवता मौन सत्वर।
परोसा ख़याली विधाता ने गोपन अंतर
दृष्टि में प्रीत भर जिज्ञासु हुए ईश्वर,
“तुम्हारी नहीं कोई माँग?”
“आपकी इच्छा ही तो मेरी माँग!!”
मेरी इच्छा तो भयंकर अति,
संभाल सकोगी माटी, वसुमति?
सृजन जब करूँ जीव-जग तेरे वक्ष पर
दिवस रजनी सदा लीला खेल हो सादर।
इन चरणों का भार
सह पाएँगे तेरे अंग सार,
मेरी सृष्टि में श्रेष्ठ होगा नर,
दुर्धर, दुर्धर्ष हो वर!
खेती-बाड़ी हेतु प्रस्तर निरंतर
करेंगे तेरा वक्षविक्षत, विहत।
तब तिल भर न हिलना जीवन संग्राम में।”
“अचला हूँ, सर्वहारा हूँ मैं।”
फिर एक बार उँडेल अमिय-दृष्टि
देह में बोर कर स्नेह-वारि
व्यक्त किया मुग्ध नयनों में,
“विजयनी आज तुम विश्व भुवन में,
हे सुंदरी कल्याणकारी,
नम्र होकर विराट, जगत की रानी।”
पल भर में क्या हुआ सारी सृष्टि में?
उन्नत गगन यह प्रणाम करता आदर में।
लगा तेरे पाद तल में।
अविलंब प्रतापी तपन ने,
तेरे चरणों में रश्मि ताप विकिरण किया।
चारु चंद्र चंद्रिका चर्चा विमन अपघन में।
देखते-देखते प्रमत्त मुदिर
अभिषेक किया उँड़ेल धारा नीर।
प्रभंजन सलील हिलोर में व्यंजन किया।
सेवा-दास-से अब आपके चरणों में
उत्तेलित कर मुग्ध जैत्रवाणी
“जय माटी, जगत की रानी!!”
- पुस्तक : बीसवीं सदी की ओड़िया कविता-यात्रा (पृष्ठ 65)
- संपादक : शंकरलाल पुरोहित
- रचनाकार : राधामोहन गड़नायक
- प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
- संस्करण : 2009
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