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मत बिठाओ मुझे अपने सिंहासन पर

mat bithao mujhe apne sinhasan par

अनुवाद : बी. आर नारायण

के. एस. नरसिंह स्वामी

के. एस. नरसिंह स्वामी

मत बिठाओ मुझे अपने सिंहासन पर

के. एस. नरसिंह स्वामी

और अधिकके. एस. नरसिंह स्वामी

    मत बिठाओ मुझे अपने सिंहासन पर,

    पहनाओ मत चंद्र किरीट मुझे।

    है भार यह नक्षत्र-मालिका,

    नहीं चाहिए राज्य मुझे।

    करो मत मेरा उपहास 'पुत्र, पुत्र' कह,

    मत करो भंग मेरे बल को।

    जो राज्य तुम्हारे लिए भार-स्वरूप,

    मत सौंपों उसे मुझे।

    मत बिठाओ मुझे अपने सिंहासन पर,

    प्रकट होने दो अपनी पौरुष ज्वाला।

    बनाओ भीरु लाड में मुझे,

    वज्र बने तुम्हारा प्रेम|

    कितने समय उपरांत इतना अभिमान?

    नहीं आती समझ तुम्हारी रीति।

    उस दिन का अनचाहा पुत्र आज आनंद बना।

    स्वार्थ ही तुम्हारी रीति?

    माँ ने कहा : तुमने उस दिन स्पर्श किया था

    उसकी मोहिनी बाँहों को

    तब विस्मय में मैंने जन्म लिया

    चूमते भू-ध्वज को।

    मरुभूमि में मेरे हेतु आकाश का झूला बना

    उसे डुलाया हिम, अग्नि, आँधी ने—

    पाया कौन-सा हर्ष माँ ने मुझ-सा पुत्र-जन्म से—

    पाला अमृत पिला-पिला मुझे।

    वर्षा नदी समुद्र में गा-गाकर मुझे खिलाती,

    समस्त जीवन में सौंदर्य खिला,

    माँ मुझे उठा पहाड़-पहाड़ पर

    आकाश के ढोल पर हर्षोन्मत्त हो नाची।

    देश-देश की धूप ने किया स्पर्श मेरे कपोलों को

    प्रेमातिरेक में घोड़ा बन बिठा पीठ पर,

    पर्वतारण्यों के सिंह शिविरों में

    मुझे पाला अग्नि कुमारी ने।

    तुमने उस दिन मुझे देखा होगा,सस्मित

    हाथ फैला मैंने तुम्हे बुलाया।

    तुम्हें था कैसा राजाधिराज होने का अभिमान!-

    बिना मुझे छुए ही चले गए तुम।

    माँ ने कहा : 'बेटा, उन्हें पुकार,

    ठुमककर जा उनके आगे'।

    उसे सुना-अनसुना कर तुम्हारे खिसकने पर

    अति दुखी हुई : 'कैसे नाथ ये’

    'माँ ईश्वर है' कह तारों ने गीत गाया,

    'वह माया है' बोले अज्ञानी।

    उसके प्रेम रस को तुमने चखा होगा|

    उस वसुंधरा का पुत्र मैं। पूछा :—

    बिन देखे ही तुम्हें बढ़ा मैं, मैंने देखा

    माँ के प्रेम को, छवि को।

    अपना पुत्र बढ़कर पिता के बल को प्राप्त करेगा

    ऐसा है उसका विश्वास।

    तुम्हारे एहसान बिना जीना सिखाओ,

    दुःख के अभ्यस्त हो शक्तिशाली प्राण बने, दो यह आशीष

    तुम्हारे सहारे बिन, तुम्हारे दिए यह विघ्न

    पार कर सरलता से बढ़ जाऊँ पथ पर

    तुम बनो पुत्र को दुःख देने वाले पिता, शत्रु बनो,

    मेरी साँसो को थका दो।

    तुम्हारे शिखर पर बहे मेरा रक्त,

    चमके तुम्हारा नाम।

    आने का पथ मिट्टी है; जाने का पथ मिट्टी है,

    बीच में रक्षक हैं माँ की आँखें।

    ये आँखें हैं रक्षा का स्वर्णिम दुर्ग

    है उचित तुम्हारा छोड़ देना मेरा हाथ।

    यह अजर अमर राजत्व कब प्राप्त होगा

    करता नहीं प्रतीक्षा मैं।

    वय प्राप्त होगा अधिकारी, यह माँगूँगा सोच

    आए हो इस भ्रम में तुम।

    स्रोत :
    • पुस्तक : भारतीय कविता 1954-55 (पृष्ठ 155)
    • रचनाकार : के. एस. नरसिंहस्वामी
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी

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