Font by Mehr Nastaliq Web

नरक के हरे उजाले में बहती हैं

narak ke hare ujale mein bahti hain

अनुवाद : दिनकर सोनवलकर

दिलीप पुरुषोत्तम चित्रे

दिलीप पुरुषोत्तम चित्रे

नरक के हरे उजाले में बहती हैं

दिलीप पुरुषोत्तम चित्रे

नरक के हरे रंग उजाले में और

बरसात की रात वाले शहर में

बहती हैं मेरी आँखें।

बिजली में पूरी तरह भीगे हुए वस्तुशिल्प के पिशाच

वातावरण के लहरदार लैंस में क्रीड़ा करते हैं।

मेरे शरीर पर प्रकाश का एक बिंदु उगता है।

और मेरा हृदय धड़कने लगता है

अँधेरे में ढूँढ़ता हूँ मैं ख़ुद की पलकें

और मेरा अपना शरीर ही अजनबी बन जाता है।

शून्य की फिरकनी से अँधेरे की कोढ़ उठती है।

मेरे तन में,

और मेरी सफ़ेद विशृंखल हड्डियाँ उसमें धोई जाती हैं

और फिर, बुझी हुई तीलियों की तरह

वे रास्तों पर खो जाती हैं।

किसी आत्महत्या के समाचार की तरह

मैं फैलता हूँ

और आकाश से शीर्षक बरसते हैं।

स्रोत :
  • पुस्तक : प्रतिनिधि संकलन कविता मराठी (पृष्ठ 68)
  • रचनाकार : दिलीप पुरुषोत्तम चित्रे
  • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन
  • संस्करण : 1965

Additional information available

Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

OKAY

About this sher

Close

rare Unpublished content

This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

OKAY