जूता और जुर्राब

juta aur jurrab

लनचेनबा मीतै

लनचेनबा मीतै

जूता और जुर्राब

लनचेनबा मीतै

और अधिकलनचेनबा मीतै

    एक समय

    तुम और मैं रहते थे साथ-साथ पड़ोसी बन

    अपने चरित्र में तुम जूता

    और मैं

    प्रारंभ से अपने चरित्र में जुर्राब

    रहते थे तुम भी मैं भी

    लिए अपनी स्वतंत्र पहचान

    लेकिन :

    एक दिन किसी अप्रत्याशित भयंकर क्षण

    बलात् समा दिया गया मैं तुममें

    पटक हाथ-पैर ज़ोर से

    कोशिश की बचने की पर क्या करूँ

    छोटी मछली को

    निगल जाती जैसे बड़ी मछली

    निगल लिया तुमने मुझे जीते जी

    करुण-कोमल नव-हृदय पर

    कठोर पैर से बार-बार मार कर लात

    रंग-बिरंगे मोटे आवरणों में लिपटी

    तुम्हारे अनंत

    गहरे खुले मुँह के अंदर

    अमावस्या की बेडौल रात

    करती नृत्य निर्वस्त्र

    जानता हूँ मैं

    उसी के भीतर

    मुझे तुमने मेरा मुँह खोल

    ठूँसा बार-बार

    पकड़ मेरी पतली गर्दन

    उसी में खो गया मेरा

    रंग-रूप और असली पहचान

    कोमल-स्पर्शी रक्तिम अँगुलियाँ सूर्य की

    मनोभाव को करता अंकुरित पवन का शीतल झोंका

    ठूँसकर रखा मुझे उन सबसे दूर

    घृणित दुर्गंधित पसीने में अपने

    मैं :

    निरुपाय

    सहन करता ओंठ चबा

    करके बंद आँखें सह रहा मैं

    प्रतिशोध-भाव में हथेलियाँ घिसते सहने वाला मैं

    रहा कितनी बार नियंत्रित कर स्वयं को

    भाग्य के किसी मैले-कुचैले कोने में

    सारे दुख-कष्टों को एक साथ ढोते हुए

    मुश्किल यह है कि—

    तुम्हारे निरंतर रगड़ने और घिसने से

    टुकड़े-टुकड़े हुए

    अभागे निरुपाय मेरे

    इन छोटे-छोटे धागों में से

    उठने लगा है धुआँ अचानक

    सुबह शाम और रात

    छिपे-छिपे भी खुलेआम भी।

    हृदय का धुआँ है यह

    हर दिशा फैले धागों का है

    टुकड़ों में बँटी अनेक ज़िंदगियों का है॥

    भड़की जो चिंगारी इस धुएँ से

    जल जाओगे मेरे साथ

    हे निर्दयी बन जाओगे राख

    बोलो

    क्या करेंगे तुम और मैं तब?

    इसीलिए

    कहता हूँ बार-बार

    जंग लगे लोहे की जंजीर से

    रोज़-रोज़ कसकर बाँधने वाले

    लंबी रस्सी से अपने इस फीते को

    थोड़ा ढीला करो

    तुम्हारे लगातार कुचलने से

    चिथड़े बने मेरे इन धागों को

    ज़िंदा रहने को ज़रा साँस लेने दो।

    स्रोत :
    • पुस्तक : तुझे नहीं खेया नाव (पृष्ठ 30)
    • संपादक : देवराज
    • रचनाकार : लनचेनबा मीतै
    • प्रकाशन : हिंदी लेखक मंच, मणिपुर
    • संस्करण : 2000

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