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मना

mana

सुरेश सलिल

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    गाँव जाता तो सिउनरायेन से अक्सर मिलना होता

    मैं पूछता, कहौ सिउनरायेन ज़िंदगानी कहसि कटि रही?

    वह मासूमियत से मुस्कुराते हुए कहता :

    अब ज़िंदगानी की क्या कहैं, भैयन, कभी घी-घना

    कभी मुट्ठी भर चना कभी वो भी मना... ज़िंदगानी क्या है!

    ...सब दइउ कै माया है...

    आया है सो जाएगा... फिर अँधेरी रात है

    आया हुआ जब चला गया

    और उसके लेखे अँधेरी रात घिर गई

    तो एक बार फिर गाँव जाना हुआ,

    सिउनरायेन से मिलना तो नहीं हो पाया

    लेकिन उसका घी-घना वाला मसला बरोब्बर याद आता रहा,

    वो यूँ, कि सिउनरायेन की ज़िंदगानी में जब भी घी घना होता

    तो वह सारा का सारा अपनी बेवफ़ा माशूकाओं को पिला देता,

    मुट्ठी भर चना वह अपनी बीवी के कोंछ में डाल देता

    और अपने हिस्से रखता वह ‘मना’

    उसका घी-घना वाला मसला इसलिए भी याद आया

    कि घी-घना तो उसकी बीवी के हिस्से कभी आया ही नहीं क्योंकि तो वह किसी की माशूका थी ही बेवफ़ा

    पहले वह सिउनरायेन की बीवी थी

    और अब बिना बाप के बच्चों की माँ,

    मुट्ठी-भर चना उसके हिस्से ज़रूरी आता

    उसे वह बच्चों की फैली हथेलियों पर धर देती,

    अपने हिस्से रखती वही—

    मना...

    स्रोत :
    • पुस्तक : कविता सदी (पृष्ठ 498)
    • संपादक : सुरेश सलिल
    • रचनाकार : सुरेश सलिल
    • प्रकाशन : राजपाल एंड संस
    • संस्करण : 2018

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