सहायिका (आरती आंटी) को याद करते हुए
लिखा है एक तंबू के बाहर
शहर के सबसे मशहूर चौराहे पर
‘बंजारों का हिमालय आयुर्वेदिक दवाख़ाना’
लोगों की भीड़ खड़ी है जिसके बाहर ऐसे
मानो लगा हो किसी गाँव में मंगल बाज़ार
सुनती है बंजारन सब्र से मरीज़ का मर्ज़
फिर देती है जामुन के बीज और आम के पत्तों का चूर्ण
बताकर दवा साल के पत्तों से बने दोने में
बताती है ढूँढ़ी थी धरती पर बंजारों ने ही सबसे पहले औषधि
और बंजारों के पास है हर उस मर्ज़ की दवा
जिसे शहर के बड़े अस्पताल कहते हैं लाइलाज
ओह! तो बंजारे ही करेंगे कल्याण समस्त मानव जाति का
और रोग, जिनकी दवाइयों का नहीं चल सका है पता
वह तमाम औषधियाँ कर रही हैं प्रतीक्षा बंजारों की?
बँटता है प्रसाद मिश्री और दूध का
गाँव की शीतला माता मंदिर के बाहर
बच्चे ग्रहण करते हैं प्रसाद, माता तृप्त होती है
मधुमेह वह अनाथ है जिसका नहीं है कोई इष्टदेव
भटकता रहता है जो देह की एक ज़मीन से दूसरी ज़मीन तक
बंजारों की ही तरह, बिना भेदभाव किए किसी प्रकार का
हाय! वह रुग्ण स्त्री बंजारे की तंबू में मिश्री की डली छोड़ आई
उसे पुकारता है बरगद के नीचे का शीतला माता का मंदिर
इसके पहले कि उसके स्नायु में जमता अवसादों का मेघ
कर दे भावशून्य उसे, वह खेलना चाहती है
लुका-छिपी तोते के साथ, जिसका ठिकाना है
आम का वह पेड़, जिसके फल हैं उसे बेहद प्रिय
चुराकर अपने ही जीवन से वह रख लेना चाहती है
एक प्रेम भरा अपराह्न
जब चख सके अपना प्रिय फल,
तोता चखकर बताएगा जिसकी मिठास
ओह! वह बंजारन के आँचल में सिक्कों जैसे बताशे छोड़ आई
चींटियाँ भूलने लगी हैं उसके घर का रास्ता इन दिनों
और उसकी ज़ुबान की स्मृतियों में फँसा है चाशनी का तार
कोई कस रहा है तंज़, रहने दीजिए,
ये बंजारे करेंगे ठीक आपका मधुमेह!
जो ख़ुद भटकते हैं दर-ब-दर
और जिन्होंने नहीं भरी है कभी गृह-ऋण की क़िस्त
वे क्या ख़ाक समझेंगे आपका दुःख,
कैसे करेंगे आपकी दुःखों का इलाज!
आह! वह बंजारन की नन्ही बेटी के हाथों में
लेमनचूस छोड़ आई
पर उसके घर में अब भी बचे हैं कुछ शेष
उसकी अपनी बेटी के लिए
कहती है उसकी बेटी : माँ, खाने हैं शक्कर पारे
रखकर नमक पारे उसकी नन्ही हथेलियों पर
सुनाती है कहानी राजकुमारी और नमक की
बदले में मिलती है उसे बेटी की मीठी मुस्कान
उफ़्फ़! वह मंगल बाज़ार में शक्कर छोड़ आई
फक्कड़ इंसुलिन गाता है गीत मचलकर :
‘मैं ज़िंदगी का साथ निभाता चला गया’
वह शहर के उस चौराहे पर गुड़ की डली छोड़ आई
कुतर रही अब बैठ बीते दिनों की मीठी यादों की गजक
वह गुज़र रही है नीम के जंगल से इन दिनों
नीम अँधेरा है जहाँ दिन और रात
नहीं उगता जहाँ केसरभोग-सा सूरज
वह चौराहे से घर तक, हर क़दम पर, कुछ रवा-चीनी छोड़ आई
जिद्दी स्वाद ने पकड़ रखा है ज़ुबान की मधुर स्मृति का आँचल
और वह आँचल की ओट से देख रही है मीठे भविष्य का आईना
- रचनाकार : सुलोचना
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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