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मछली और किलकिला पक्षी

machhli aur kilkila pakshi

अनुवाद : सच्चिदानंद दास

ब्रजनाथ रथ

ब्रजनाथ रथ

मछली और किलकिला पक्षी

ब्रजनाथ रथ

और अधिकब्रजनाथ रथ

    नदी के पठार

    कांशवन में—

    किलकिला बैठा था

    एक मन एक ध्यान से;

    और बैठा-बैठा

    अपलक नयन से

    निरख रहा था-

    उफनती नदी को।

    बारिश हो रही थी

    आसमान से टिपटिप;

    सावन की बाढ़ से

    लबालब भरी नदी।

    महामौज से—

    प्रखर स्रोत को काटती,

    गंदले पानी को चाटती,

    जलपरी-सी चमकती छोटी-सी मछली...

    क्रीड़ामन थी इधर-उधर।

    अचानक नीरवता भंग कर

    किलकिले ने कहा मछली से,

    पानी का जीव है तू—

    एक बार आसमान की असीमता में

    उड़ती, निःसीम नीलिमा में डूबती,

    तो जानती—

    नदी जल से आसमान का नील

    कितना सुंदर!

    कितना मधुर और

    कितना सुखकर!

    किलकिले की बात सुन—

    विस्मयविमूढ़ मछली

    बोली, सच!

    मुझे आसमान दिखाओगे?

    थोड़ा-सा?

    पलक झपकते ही—

    तिर्यक् गति से झपटकर,

    अपने नुकीले चोंच से किलकिले ने

    उठा लिया मछली को...

    और उड़ चला

    दूर क्षितिज को ओर।

    किलकिले की चोंच में

    आसमान में उड़ती,

    निबिड़ नीलिमा में डूबती।

    मौत के पिंजरे में छटपटाती—

    बेचारी असहाय मछली

    सोच रही थी—

    सुख कहाँ है, नदी के जल में...

    या आकाश के नील में?

    स्वर्ग कहाँ है—

    धूसर धरती पर...

    या असीम आकाश में?

    स्रोत :
    • पुस्तक : समकालीन ओड़िया कविता (पृष्ठ 25)
    • रचनाकार : बृजनाथ रथ
    • प्रकाशन : भारतीय साहित्य केंद्र
    • संस्करण : 2013

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