चचेरे दादा के पास थी
कहानियों की खेती
उन्हें ही पता था
कि कैसे मकई के खेत में
देखते-देखते
जनाना बना था नीलगाय
नदी किनारे चूड़ियों की खनक
आधी रात में बदल गई
कैसे चीख़-पुकार में
ठूँठ पाकड़ गाछ पर टँगे
कैसे हँसता था तेलिया-मसान
एक कथा थे दादा
जिसे वे आजीवन बाँचते रहे
रात्रि-भोजन के बाद
लोग जब लुढ़क जाते नींद में
अपने घरों, दालानों और खलिहानों में जाकर
वे काँख में लाठी दबाए, खैनी बनाते
निकल जाते गाँव के पश्चिम
मकई के खेतों के बीच
अपने मचान से रखवाली में
मचान ही था उनका मंच
जिस पर बैठ, वे गाते विरहा, निर्गुण, सोहर
करते सवाल-जवाब, लगाते हिसाब-किताब
धान, ईख, पटवन, रोपनी, सोहनी का
किस पशु, चिरई की बोली
उन्हें नहीं थी ज्ञात
तारों को देख लगा लेते रात का अंदाज़ा
धूप देख बता देते
साँझ होने में, कितनी है देर
कब के विदा हो गए दादा
और न रहा वो मचान
पर कुछ लोगों की राय है
कि जैसे दुनिया है गोल
और एक सिर से चला आदमी
वहीं लौट आता है
जहाँ से कभी चला था वो
ठीक उसी तरह
एक दिन लौट आएगा मचान
चिरई-चुरूँग, धान-मकई सबसे
आदमी जोड़ेगा अपनी चहान।
- पुस्तक : स्वर-एकादश (पृष्ठ 87)
- संपादक : राज्यवर्द्धन
- रचनाकार : राजकिशोर राजन
- प्रकाशन : बोधि प्रकाशन
- संस्करण : 2013
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