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माँस-वर्जन

maans varjan

तिरुवल्लुवर

तिरुवल्लुवर

माँस-वर्जन

तिरुवल्लुवर

और अधिकतिरुवल्लुवर

    251

    माँस-वृद्धि अपनी समझ, जो खाता पर माँस।

    कैसे दयार्द्रता-सुगुण, रहता उसके पास॥

    252

    धन का भोग उन्हें नहीं, जो करेंगे क्षेम।

    माँसाहारी को नहीं, दयालुता का नेम॥

    253

    ज्यों सशस्त्र का मन कभी, होता नहीं दयाल।

    रुच-रुच खावे माँस जो, उसके मन का हाल॥

    254

    निर्दयता है जीववध. दया अहिंसा धर्म।

    करना माँसाहार है, धर्म हीन दुष्कर्म॥

    255

    रक्षण है सब जीव का, वर्जन करना माँस।

    बचे नरक से वह नहीं, जो खाता है माँस॥

    256

    वध करेंगे लोग यदि, करने को आहार।

    आमिष लावेगा नहीं, कोई विक्रयकार॥

    257

    आमिष तो इक जन्तु का, व्रण है यों सुविचार।

    यदि होगा तो चाहिए, तजना माँसाहार॥

    258

    जीव-हनन से छिन्न जो, मृत शरीर है माँस।

    दोषरहित तत्वज्ञ तो, खाएँगे नहिं माँस॥

    259

    यज्ञ हज़रों क्या किया, दे दे हवन यथेष्ट।

    किसी जीव को हनन कर, माँस खाना श्रेष्ठ॥

    260

    जो करेगा जीव-वध, और माँसाहार।

    हाथ जोड़ सारा जगत, करता उसे जुहार॥

    स्रोत :
    • पुस्तक : तिरुक्कुरल : भाग 1 - धर्म-कांड
    • रचनाकार : तिरुवल्लुवर

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