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माँ का अकेलापन

maan ka akelapan

राकेश रेणु

राकेश रेणु

माँ का अकेलापन

राकेश रेणु

और अधिकराकेश रेणु

    केवल वसंत नहीं

    ऋतुचक्र गुज़रता रहा उसकी हथेलियों से

    जिन हथेलियों ने दुलारा-सँवारा

    भाई-बहनों को मेरे साथ-साथ

    गोरैया-सी उसकी हथेलियाँ

    टँगी हैं बाहों की फैली कमाची पर

    बिजूखे की तरह जाने कब से

    छूना चाहती हैं हथेलियाँ उनको

    छूटते, दूर होते गए जो उनसे

    अब रात-बेरात, दिन-दुपहर

    भर उठता है बिजूखा अनिष्ट की आशंका

    और अजीब-सी बेचैनी से

    बिजूखा अकेलेपन से डरता है

    माँ सुबह-सुबह बाबूजी को याद करती है

    बिछड़ने की पीड़ा घनीभूत हो उठती है

    आल-औलादों की याद में

    असीसती है सबको जागते-सोते

    बिजूखा टटोलता-सहलाता है मेरा माथा

    आधी रात, अल्लसुबह

    माँ अकेलेपन से डरती है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : इसी से बचा जीवन (पृष्ठ 66)
    • रचनाकार : राकेश रेणु
    • प्रकाशन : लोकमित्र प्रकाशन
    • संस्करण : 2019

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