हिंदू देश में यौन-क्रांति
hindu desh mein yaun kranti
मर्दों ने मान लिया था
कि उन्हें औरतें बाँट दी गईं
और औरतों ने
कि उन्हें मर्द
इसके बाद विकास होना था
इसलिए
प्रेम और काम, और क्रोध और लालसा और स्पर्द्धा,
और हासिल करके दीवार पर टाँग देने के पवित्र इरादे के पालने में
बैठकर सब झूलने लगे
परिवारों में, परिवारों की शाखाओं में
कुलों और कुटुंबों में—जातियों-प्रजातियों में
विकास होने लगा
जंगलों-पहाड़ों को
म्याऊँ और दहाड़ों को
रौंदते हुए क्षितिज-पार जाने लगा
इतिहास के कूबड़ में
ढेरों-ढेर गोश्त जमा होने लगा
पत्थर की बोसीदा किताब से उठकर डायनासोर चलने लगा
कि यौवन ने मारी लात देश के कूबड़ पर और कहा—
रुकें, अब आगे का कुछ सफ़र हमें दे दें
पहले स्त्री उठी
जो सुंदर चीज़ों के अजायबघर में सबसे बड़ी सुंदरता थी
और कहा, कि पेडू में बँधा हुआ यह नाड़ा कहता है
कि क़ीमतों का टैग आप कहीं और टाँग लें महोदय
इस अकड़ी काली, गोल गाँठ को अब मैं खोल रही हूँ
सुंदरता ने असहमति के प्रचार-पत्र पर
सोने की मुहर जैसा सुडौल अँगूठा छापा और नाम लिखा—अतृप्ति
कूबड़ थे जिसमें अकूत धन भरा था
कुएँ थे जिसमें लालसा की तली कहीं न दिखती थी
पर सुंदरता का दावा न था कि वह इस असमतलता को दूर करेगी
इरादों की ऋजुरैखिक यात्रा में वह थोड़ी अलग थी
उसने एक नई धरती की भराई शुरू की
जो सितारे की तरह दिखती थी
चाँद की तरह
जिसकी मिट्टी में गुरुत्व नहीं था
जिसके ऊपर, नीचे, दाएँ, बाएँ आसमान था
तो भी घर-घर में एक इच्छा जवान होती थी
कि बेशक अमेरिका के बाद ही
पर एक दिन हम भी वहाँ जाकर रहेंगे
आँगन-आँगन कामना का इस्पात घिसता था
बुझी-गीली राख में रात-दिन
और तश्तरी की धार तेज़ होती जा रही थी
तश्तरी घूमती थी और काटती थी
घूम-घूमकर काटती कतरती थी ककड़ियों-खरबूजों की तरह
हिंदू देश में हिंदुओं को
अपनी सांस्कृतिक दुविधाओं में खड़े
वे खच-खच कटते थे
अपनी विविधताओं में बुझे मोतियों से जड़े
धर्म के सुविधाजनक-उपेक्षित पिछवाड़े पड़े
वे चमार, लुहार, कुम्हार
ब्राह्मण, बनिये, सुनार
कहीं न थी पूरी तलवार
केवल धार
सड़क पर चिलचिलाती धूप में लहराती
निमिष-भर को दिखती
और खरबूजों-तरबूजों की तरह फले-फूले
और पाला खाई टहनियों-से सूखे-तिड़के
मर्दों के मेदे में उतर जाती
मनु का देश काँखता खड़ा रह जाता
और वह अगली धूप में पहुँच जाती
सारे पांडव, सारे कौरव, सारे राम, सारे रावण
अपने रचयिताओं को पुकारते युद्ध से बाहर हुए जाते थे
दूर खड़े अपने हथियार चमकारते
चरित्रवान आत्माओं को जगाते—कहते,
यौवन ने मचा दिया ध्वंस
कल तक कैसे शांत खड़ी लहराती थी संयम की फ़सल
आह, इतने आक्रमक तो न थे हिंदू आदर्श
ये तो रास्ता छेंककर खड़ी हो जाती है
ये कौंधती टाँगें,
ये सुतवाँ नितंब, ये घूरते स्तन, ये सोचती-सी नाभि
सर्वत्र प्रस्तुत—कि जैसे हाथ बढ़ाओ, छू लो, खालो
पर इरादा कर बढ़ो तो... अरे सँभालो...
यही क्या हिंदू सौंदर्य है!
चकित थे हिंदू
बलात्कार की विधियाँ सोचते, घूरते, घात लगाए, चुपचाप देखते, सन्नद्ध
कि भीम के, द्रोण के देश में जनखापन छाया जाता है
कि एक ही आकृति में स्त्री आती है और पौरुष जाता है
कि दृश्य यह अद्भुत है
पूछते विधाता से हाथ जोड़कर प्रार्थना में
और शाखा में पवन-मुक्तासन बाँधकर संचालकजी से—
कि इस दृश्य का लिंग क्या है, प्रभो!
- पुस्तक : शोकनाच (पृष्ठ 47)
- रचनाकार : आर. चेतनक्रांति
- प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
- संस्करण : 2004
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