हिजड़ा कहते ही दुनिया की सारी गालियाँ
नग्न हो करने लगतीं हवा में नृत्य जिसमें नहीं होते
शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध के छटाँक भर
बस होता है चीत्कार, हाहाकार,
रुदन कि जैसे फट पड़ा हो धरती का कलेजा
हिजड़ा कहते ही मनुष्य की आदिम बर्बरता
अपनी पूरी ताक़त के साथ रखती धरती पर पैर
और धरती की आँखों से ढुलक पड़ते अश्रुजल
हिजड़ा कहते ही भेंट जाती पांडुओं को पुरुषत्व के शस्त्र
शिकारी होने की प्राचीन पदवी अहंकार का आधुनिक पान मसाला
हिजड़ा कहते ही दिखने लगी टोली में ढोलक
हथेलियों का पीटना, सड़क पर मजमा
मस्त-मलंग-सा चलने वाला धरती का अजूबा जीव
जिन्हें देख झेंप जाते भद्र और सज्जन लोग
सिकुड़ जातीं कुमारिकाएँ, युवतियाँ, गणिकाएँ
हिजड़ा कहते ही हर रंग को जैसे काठ मार जाता
बिखर जाती फूलों की ख़ुशबू कलियाँ चटकना भूल जातीं
हिजड़ा कहते ही दुखों की एक नदी बहती है
जिसे समुद्र में मिलना नहीं होता
जल भी इसका अपेय, दुर्गंधयुक्त कि
पक्षीगण भी उड़ जाते इस पर से उस पार
हिजड़ा कहते ही यह पता चल जाता इस दुनिया को
जिसने सबसे पहले कहा होगा सभ्य
वह दुनिया का सबसे असभ्य आदमी होगा।
- रचनाकार : राजकिशोर राजन
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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