फ़ाशिस्ट
fashist
एक
जब बच्चे दम तोड़ रहे थे सरकारी अस्पतालों में
या कि मसला जा रहा था उनका बचपन वातानुकूलित स्कूलों में
स्कूल तिजारत की मंडियों में तब्दील हो रहे थे जब
जब माँएँ रो रही थीं ज़ार-ज़ार
अपने फूल से बच्चों के लिए
तब वह अट्टाहास कर रहा था
जब वह मुस्कुराता था
तो डर जाते थे कितने ही लोग
सहम जाते थे अपने ही घरों में घुसते हुए
सहमे हुए ये लोग इन दिनों
बदल रहे हैं अपना ज़ायक़ा
ये लोग जिनकी रसोइयों में घुस गया है कोई दादरी
जिनके सीनों पर जम गई है मनों बर्फ़
और जिनके घरों के ऊपर सदियों नहीं उगता कोई सूरज
ये लोग इन दिनों
आपस में भी कम बोलते हैं।
दो
वह बोलता है तो कमल खिलते हैं
हाथ हिलाता है तो हिल जाती हैं दिशाओं की कोरें
वह चलता है तो चल पड़ते हैं मुल्क तमाम
उसे गुमान है कि ऐसा हो रहा है
उसे गुमान है कि वह ख़ुदा होने को है
वह अपने भाषणों में अक्सर रोता भी है
जहाँ गिरते हैं उसके आँसू
वहाँ फिर कभी घास नहीं उगती।
- रचनाकार : फ़रोज़ ख़ान
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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