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लौटना

lautna

निखिल आनंद गिरि

और अधिकनिखिल आनंद गिरि

    किसी अनमनी दोपहर की

    लंबी चुप से निकली कई-कई आवाज़ें

    अंतरिक्ष से टकराकर लौट आती हैं

    सपनों में प्रवेश कर जाती हैं चुपके से

    ऐसे ही लौटना है एक दिन।

    जैसे लौटता है पलटू महतो

    हर तीन फीट की खुदाई के पास

    बहुत सारी साँसें लेकर

    एक कश बीड़ी के लिए।

    जैसे लौटता है पिटकर भगीरथ डोम

    थाने से हलफ़नामे के बाद

    बीवी-बच्चों के लिए

    सूजा हुआ समय लेकर।

    लौट आती हैं नानी-दादियाँ

    झुर्रियों से पहले वाले दिनों में

    छुट्टियाँ बिताने आए नाती-पोतों के संग।

    लौटते हैं अच्छे मौसम

    या जैसे रेलगाड़ियाँ

    बेसुध इंतज़ार के बाद।

    जैसे लौटती है पृथ्वी

    अपनी धुरी पर

    युगों की परिक्रमा के बाद।

    प्रेमिकाएँ लौट आती हैं

    कभी-कभी पत्नियों के चेहरे में।

    किसी अकेले कमरे में

    लौट आते हैं चुंबन वाले दिन

    आईना निहारती बड़ी बहू के।

    लौट आता है उधार गया रुपया

    किसी परिचित के बटुए से।

    देखना हम लौटेंगे एक दिन

    उन पवित्र दुपहरों में

    तीन दिन से लापता हुई

    अचानक लौट आई बकरी की तरह।

    जैसे लौटती है आदिवासी औरत

    तेंदु की पत्तियाँ बेचकर

    दिन भर की थकन लेकर

    अपने परिवार के पास

    और लोकगीत मुस्कुराते हैं।

    स्रोत :
    • रचनाकार : निखिल आनंद गिरि
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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