लड़की
laDki
पहाड़ों की गोंद में
एक नवजात शिशु की तरह
स्वच्छ सफ़ेद झीनी-सी चादर में लिपटी नदी
वक़्त गुज़रने के साथ
सफ़र में मसरूफ़
जब चट्टानों की ढलान से
कल-कल करती
अनगिनत वृक्षों-पक्षियों से बतियाती
अपनी धुन में मगन बढ़ रही है
बिल्कुल एक नन्ही बच्ची-सी उन्मुक्त
जो दुनिया की तमाम झंझावातों से इतर
बस सपनें में जीती है
जो परियों के लिए घर बनाती है
उनकी शादी कराती है
कभी उनसे ख़ुद रूठती भी है
ख़ुद मान भी जाती है
इस बात से अनजान कि नदी की भाँति
उसका सफ़र भी शुरू हो चुका है।
मैदानों में पाँव रखते ही नदी में
एक अजीब-सा बदलाव दिखता है
उसके रूप में हाव-भाव में
सरपट दौड़ती वही नदी
शालीनता की चादर ओढ़े
बिल्कुल ठहर-सी गई है
ऐसा लगता है जैसे लोगों की भीड़ में
सहम-सी गई है
एक क़दम बढ़ाती है
कई बार इधर-उधर देखती है
न पेड़
न पक्षी
न कोई सुनने वाला
न कोई सुनाने वाला
यहाँ सभी ज़िंदगी की आपाधापी में खोए हुए हैं
इसी के साथ सफ़र में
वह नन्ही बच्ची भी कुछ ज़्यादा ही
फ़िक्रमंद, शांत और सुशील हो गई है
परियों की बात नहीं करती
जिसे रूठने-मनाने में पूरा दिन निकाल देती थी
अब बात-बेबात 'बी प्रैक्टिकल'
तकिया-कलाम प्रयोग करती है।
अब नदी अपने सफ़र के अंतिम पड़ाव में है
जब कभी पीछे मुड़कर देखती है
उसे मैदान की यात्रा नहीं
अपितु पहाड़ के साथी याद आते हैं
इन्हीं यादों को सँजोए आत्ममुग्ध नदी
समुद्र के मुहाने पर खड़ी
मुस्कुरा रही होती है
तभी एक लहर का झोंका आता है
सफ़र ख़त्म होता है नदी का।
ठीक इस नदी की तरह
जवानी की दहलीज़ पर खड़ी लड़की
शादी से एक क़दम दूर
जब पीछे मुड़कर देखती है
परियों का खेल ही उसके चेहरे पर
चवन्नी मुस्कान दे जाती है
फिर घरवाले डॉक्टर, इंजीनियर या सरकारी
नौकरी वाले के साथ विवाह कर
लड़की का सफ़र ख़त्म करते हैं।
नदी क्या होती?
एक लड़की
लड़की क्या होती?
शायद एक नदी।
- रचनाकार : आशीष यादव
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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