क्या हमारे भीतर कहीं आग बची है?
kya hamare bhitar kahin aag bachi hai?
विशाल श्रीवास्तव
Vishal Shrivastava
क्या हमारे भीतर कहीं आग बची है?
kya hamare bhitar kahin aag bachi hai?
Vishal Shrivastava
विशाल श्रीवास्तव
और अधिकविशाल श्रीवास्तव
लक्षित नहीं होता है पर
जीवन के ठंडे और धूसर
राख भरे अवसाद के नीचे
क्या हमारे भीतर कहीं आग बची है?
मुट्ठी की नसों को मार गया है लकवा
प्रशांत विनम्रता और धैर्य में निहुरे-निहुरे
रीढ़ में बस गया है एक नाज़ुक स्थाई लोच
केवल जिन पर अपना बस चलता है
रात के कुछ उन बिल्कुल अपने घंटों में
अपने रोग-शोकग्रस्त सपनों में
हम क्रांति जैसा कोई वर्जित शब्द काँखते हैं
हमारे जर्जर शब्दकोशों के दीमक खाए पन्नों में
प्रतिरोध जैसे तमाम शब्दों पर
गिर गई है प्रसन्न स्याही की कोई बूँद
- पुस्तक : पीली रोशनी से भरा काग़ज़ (पृष्ठ 99)
- रचनाकार : विशाल श्रीवास्तव
- प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
- संस्करण : 2016
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