एक
बता मुझे ऐ विहग विदेशी अपने जी की बातें,
पिछड़ा था तू कहाँ, आ रहा जा कर इतनी रातें?
निदा में जा पड़े कमी के, शाम्य मनुज स्वच्छत्त,
अन्य विहग भी निज खोतों में सोते हैं सानंद।
इस नीरव घटिका में उड़ता है तू चिंतित गाव,
पिछड़ा था तू कहाँ हुई क्यों तुझको इतनी रात॥
दो
देख किसी माया-प्रांतर का चित्रित धारु दुकूल?
क्या तेरा मन मोह जाल में गया कहीं या भूल?
क्या उसकी सौंदर्य सुरा से उठा हृदय तव ऊब?
या आशा की मरीचिका से छला गया तू ख़ूब?
या होकर दिग्भ्रांत लिया था तूने पथ प्रतिकूल?
किसी प्रलोभन मे पड़ अथवा गया कहीं था भूल?
तीन
अंतरिक्ष में करता है तू क्यों अनवरत विलाप,
ऐसी दारुण व्यथा तुझे क्या, है किसका परिताप?
किसी गुप्त दुष्कृति की स्मृति क्या उठी हृदय में जाग,
जला रही है तुझको अथवा प्रिय वियाग की आग?
शून्य गगन में कौन सुनेगा तेरा विपुल विलाम,
बता कौनृसी व्यय तुझे है, है किसका परिताप?
चार
यह ज्योत्सना रजनी हर सकती क्या तेरा न विषाद,
या तुझको निज जन्मभूमि की सता रही है याद?
विमल व्योम में टैगे मनोहर पणियों के ये दीप,
इंद्रजाल तू उन्हें समझकर जाता है न समीप?
यह कैसा मयमय विभ्रम है कैसा यह उन्माद,
नहीं ठहरता तू, आई क्या तुझे गेहूँ की याद?
पाँच
कितनी दूर? कहाँ? किस दिशि में तेरा मित्य निवास?
विहस विदेशी लाने का क्यों किया यहाँ आयास?
वहाँ कौन नारायण करता है आलोक-प्रदान,
गाती है नटिनी उस भू की बता कौन-सा गान?
कैपी सिग्ध समीर चल रही? कैसी वहाँ सुवास,
किया यहाँ आने का तूने केसे यह आयास?
- पुस्तक : कवि भारती (पृष्ठ 278)
- रचनाकार : मुकुटघर पांडे
- प्रकाशन : साहित्य प्रेस
- संस्करण : 1953
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