Font by Mehr Nastaliq Web

कूकने वाली कोयल

kukne wali koel

अनुवाद : पूर्ण सोमसुन्दरम्

कोत्तमंगलम सुब्बु

कोत्तमंगलम सुब्बु

कूकने वाली कोयल

कोत्तमंगलम सुब्बु

और अधिककोत्तमंगलम सुब्बु

    मैंने कोयल को पकड़कर पिंजड़े में बंद किया,

    तो उसने कूकना छोड़ दिया, कोयल ने

    बोलना छोड़ दिया।

    पिंजड़ा खोलकर उसे जंगल में छोड़ा, तो

    कूकने लगी कोयल, मीठी तान

    छेड़ने लगी कोयल।

    पिंजड़े के अंदर बंद रही, तो

    नहीं बोलेगी, क्या? हाँ री, कोयल,

    बच्चे की भाँति तुझे पालूँ, तो

    नहीं कूकेगी, क्या?

    कोयल का उत्तर :

    मेरी कहानी जो भी सुनेगा,

    उसकी आँखें भर आएँगी।

    समझते नहीं हो तुम, तभी तो (मेरे गीत को)

    मधुमय तान कहा करते हो।

    लोग कहते हैं कमल तालाब वाली कोयल

    मुझे जनमने वाली माँ थी।

    आम के पेड़ वाले कोकिल थे उसे

    वरने वाले पतिदेव।

    फूल से लदा पेड़ देखते ही

    दोनों उन्मत्त हुए फिरते।

    कामदेव के अनुचर थे वह

    सदा सर्वदा, जीवन-भर।

    डाली पर कोंपल देख लें, तो

    चोंच लगाते, गाते थे।

    तालाब में खिले कमलों पर

    फुदक-फुदक कर कूकते थे।

    प्रेम-व्योम में उड़ते थे वे,

    मोद-वारि में तैरते थे।

    नदी में बाढ़ आई देखकर

    ताने छेड़ा करते थे।

    अमलतास के फूल खिलें, तो

    कोकिल-द्वय जा बसे वहीं।

    पुन्नाग की कलियाँ निकलीं, तो

    पंचम स्वर में वे कूकने लगे।

    नारियल के पत्तों पर बैठकर

    दोनों झूला झूलते थे।

    मधुमय तान सुनाते थे वे,

    जिसे देवता सुनते थे।

    दिन-भर गाना और नाचना,

    साँझ हुई तो प्रणय-मिलन

    गाने वाले लोगों की तो

    परंपरागत वृत्ति है यह।

    अर्जन करना और जोड़ना,

    बिलकुल नहीं जानते थे वे।

    नीड़ बनाने की उनको सूझी ही नहीं,

    वे तो रति-केलियों में मस्त रहे। इतने में

    प्रणय-सुख के पौधे में फल लगा

    मेरी माँ के गर्भ रहा।

    पछवा हवा में ठिठुरती-काँपती,

    मिल-जुलकर बातें करते झिझकती!

    प्रेमी भी अब कनखियों से

    औरों की ओर लगा झाँकने!

    तब मेरी माँ खिन्न हृदय से

    कोसने लगी मुझे।

    अंडा देने की प्रथा पूरी कर,

    पैरों से उसे उठा ले गई और

    कौए के नीड़ में छोड़कर

    भाग गई वह प्रियतम के पीछे।

    अंडा देने के बाद किसी बैल की

    पीठ पर जा बैठी निश्चिंत हो,

    और शहर सब पार करके

    उड़ गई जाने कहाँ?

    माँ की ममता टुक थी उसमें

    तभी तो मुझे ज़मीन पर नहीं पटका।

    फिर भी प्रिय के मोह के आगे

    मैं शायद नगण्य हो गई?

    ***

    (कौए के नीड़ में)

    बबूल की छतरी के भीतर,

    सबसे ऊपर की डाली पर,

    कौवी बैठी अंडे सेती,

    कौआ चारा खोजने जाता।

    भेड़ों के झुंड के रखवाले कुत्ते की तरह,

    चीख़ उठती कौवी, कोई चील आए, तो,

    तत्काल झपटकर आता कौआ,

    सेना के वीर की भाँति।

    जीवाणु बढ़ा और रूप बना,

    विचार बढ़ा और चित्त बना।

    अब अंदर रहा नहीं गया,

    पृथ्वी पर आने का समय गया।

    सेंत-मेत में सेने वाली

    माता कौवी के प्रसाद से,

    बच्चे के रूप में प्रकट हुई मैं,

    हाय, यातना सहने को।

    “बच्चे निकले, देखो तो,”

    बोली कौवी, प्यार भरी,

    चोंच लगाकर धीरे से

    सहलाया कौवे ने हमको।

    पाँच ही थे कौए के बच्चे,

    छठी थी मैं, पर उन्हें पता था!

    सबको अपने बच्चे मानकर

    प्यार से पाला दोनों ने।

    जाने मेरी किस्मत थी,

    या फिर माँ का पाप था,

    एक दिन मैं चोंच खोलकर

    बोल पड़ी, बस, फँस गई।

    अपना बच्चा समझ मुझे,

    अपने हाथों पाल-पोस कर,

    खिलाने-पिलाने वाली दाई

    मारने दौड़ी मुझे तभी।

    (बात यह थी कि एक दिन)

    चारे के लिए गए थे दोनों,

    रात होने तक नहीं लौटे।

    तब सब बच्चे चीख़ उठे, तो

    मैं भी ज़ोर से रो पड़ी!

    हाय विधाता! क्यों रोई मैं?

    शायद वह सुरीली तान लगी।

    सुनती-सुनती आई कौवी,

    मुझे नीड़ से गिरा दिया और

    चोंच मार-मारकर भगाने लगी,

    बच्चा मानकर तनिक दया की।

    जब देखा अपना नहीं, तो

    भगाने लगी वह मुझे फिर-फिरकर।

    गाँव के सारे कौए मिलकर

    लपके मुझ निःसहाय ग़रीब पर!

    कुछ कहने को मुँह खोलूँ तो

    झपट-झपटकर मारें चोंच!

    भय था उन्हें कि सब बच्चों को

    अपना स्वर कहीं दे डालूँ!

    भय था उन्हें कि पंचम स्वर में

    कौए भी कूकने लग जाएँ।

    “छल रचकर नीड़ के अंदर

    घुसने वाला चोर है यह,

    अंडे से ही चोर,” कह मुझे

    चोंचों से मारते सब।

    जनमने वाली माँ ने मुझे

    निर्ममता से त्याग दिया।

    पालने वाली धात्री ने तो

    मार-कोसकर भगा दिया।

    कसूर तो मैंने कुछ भी नहीं किया,

    सिवाय इसके कि कोयल पैदा हुई।

    सुनो नरोत्तम! अनाथ होकर

    भटक रही हूँ जग-भर में।

    किस गाँव में, किस देश में,

    कहाँ-कहाँ ढूँढूँगी मैं?

    सुता को यों तरसाने वाली

    माँ से कभी मिलूँगी मैं?

    इसी व्यथा से पुकारती हूँ,

    तुम कहते हो, सुमधुर तान।

    विलक्षण है यह, इतना कहकर

    उड़ गई कोयल, तेज़ी से।

    स्रोत :
    • पुस्तक : भारतीय कविता 1953 (पृष्ठ 263)
    • रचनाकार : कोत्तमंगलम सुब्बु
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
    • संस्करण : 1956

    संबंधित विषय

    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

    ‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।

    Additional information available

    Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.

    OKAY

    About this sher

    Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.

    Close

    rare Unpublished content

    This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.

    OKAY

    जश्न-ए-रेख़्ता | 13-14-15 दिसम्बर 2024 - जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम, गेट नंबर 1, नई दिल्ली

    टिकट ख़रीदिए