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कुहनियों के संकेत हैं कुछ

kuhaniyon ke sanket hain kuch

प्रांजल धर

प्रांजल धर

कुहनियों के संकेत हैं कुछ

प्रांजल धर

और अधिकप्रांजल धर

    तुम्हारे शरीर में कुहनियाँ हैं

    कुहनियों के संकेत भी हैं कुछ

    उन्हीं के दम पर तुम बढ़े हो आगे

    रेंग-रेंग तय किया खुरदुरी राहों को

    गालियाँ सुनी हैं तुमने सभी की बहुत लंबे समय तक

    शरीर पर मांस का सौ ग्राम भी नहीं

    और व्यवस्था-विरोध की ईंट से गढ़ते हो अपनी हड्डियाँ

    मुझे याद हैं वे एक-एक क्षण

    जब कुहनियाँ मार-मार जगाती थी मेरी बहन मुझे

    रजाई में, बचपन में, चुपके से, सुबह-सुबह

    पिता के नाराज़ होने पर कि जल्दी उठा करो

    कि इतनी देर तक सोकर जीवन में कुछ नहीं बना कोई!

    तमाम कुहनियाँ गुत्थमगुत्था हो जातीं

    गोधूलि के समय जब हम बच्चे खेलते

    गोलम्बर में छुई-छुवान सब।

    और पाँचवें दर्ज़े में तो कुहनियों के ये संकेत ही रचते

    आमुख उन महान झगड़ों के

    जिन्हें फैलाते हम कई-कई पन्नों में,

    क्लास टीचर की खोजी निगाह से दूर कहीं छिपकर

    बिल्कुल बेज़ुबान हो।

    निकलती है चिमनियों से गहरी एक धुँध

    धुएँ के छल्लों से झाँके मेरा बचपन

    अपनी दीवाली संग

    जब छुरछुरिया जलाते वक़्त

    कुहनियों में फफोले पड़े थे मेरी।

    जाड़े की ठिठुरती बारिश में

    एक छाता भीगता है लगातार

    युग्मित कुहनियों की भाषा बचाने हित

    हैं भले ही आँखें बहुत सुंदर तुम्हारी

    पर जिस मुद्रा में खींचतीं ये सभी की आँखों को

    टिकती वह कुहनियों पर ही आख़िरकार,

    आश्वस्त करता हूँ ख़ुद को

    अपना ही हाथ ख़ुद अपनी ही पीठ पर रख

    थपथपाते हुए बेहद मज़बूती से

    कि तनकर खड़ी हो जाती बेटी मेरी पहले तो

    बाज़ार में देख कोई महँगा खिलौना

    और जाने क्या पढ़ आँखों में मेरी

    कुहनियों को कोंच-कोंच कहती संकेतों में

    चलो पापा, नहीं लेना इसे!

    कुहनियों के संकेतों को पढ़ती वह मुझसे कई गुना बेहतर।

    आराम की मुद्रा में लाते जब

    पकी हुई दाढ़ी और पिचके-से गाल को

    दोपहर तक खेत गोड़ने के बाद मेरे बाबा

    कुहनियाँ ही बनतीं थूनी सिर टिकाने के लिए।

    टपकतीं उनकी कुहनियों से वृद्ध पसीने की युवा कुछ बूँदें

    और माटी के धधकते ढेले पर गिरने से पहले

    उड़ जातीं हवा में

    महसूस करता

    खेतों के लिए उनके वात्सल्य का तापमान मैं।

    कुहनियों के बल लेटकर पढ़े गए अनेक धर्मग्रंथ

    कविताएँ

    और दास कैपिटल भी

    सैनिकों की तो हाथ-पाँव रहीं ये कुहनियाँ

    देखा है काली कुहनियाँ ढकती कुछ गोरी लड़कियों को

    इतवारी मेले में शीशा, लिपिस्टिक, चिमटी, फीता

    और रूमाल ख़रीदते वक़्त

    और फिर नाज़ुक सवाल भी सुनता उनके

    कुहनियों के रंगों से जुड़े कुछ,

    कि गोरापन है एक जीवन-मूल्य

    गेहुँआ, साँवला या उजास-सा नहीं

    खालिस अश्लेष टपकता हुआ गोरापन।

    जब झगड़ों से निपटने की ठान ही ली

    तो चढ़ा लीं कुर्ते की बाँहें

    कुहनियों के धक्कों ने ही संचार किया था

    दोस्तों की बिना शर्त साथ रहने वाली गरमाहट का

    कुर्सियों के हत्थों पर दोनों कुहनियाँ रख

    बड़े ही ठाठ से खिंचवाते तस्वीर वे

    सम्राट की तरह दिखना चाहते वे सत्ता पाकर

    उनकी सारी तस्वीरों में कुहनियाँ ही प्रमुख रहीं

    खो जाते दो प्रेमी एक दूसरे में

    बिल्कुल नदियों के समुद्र में गुम हो जाने की मानिंद

    तब कुहनियाँ देतीं साथ

    वे होश में रहतीं तब भी अपना कर्तव्य निभाने को

    जब दोनों को ही होश नहीं रहता।

    दंड मिलने पर वो कुहनियों के बल जाता

    लेटकर

    मठाधीशों के पास...

    कुहनियों के सहारे घुसते लोग

    रेला उबालती बसों में

    तमाम भीड़-भड़क्के के बीच

    अफ़सोस कि कुहनियों की मदद से

    अपना रास्ता साफ़ करना

    एक दाँव हो चला अब

    और दंगों के दौरान देखता हूँ

    बूढ़े एक पिता को

    अपनी इकलौती बिटिया का लथपथ शरीर ले जाते

    कुहनियों से टपकतीं ख़ून की कुछ बूँदें

    अंतिम विदाई से तुरंत पहले।

    स्रोत :
    • रचनाकार : प्रांजल धर
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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