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कुछ भी न था उसका अपना

kuch bhi na tha uska apna

अनुवाद : सच्चिदानंद दास

प्रवासिनी महाकुड़

प्रवासिनी महाकुड़

कुछ भी न था उसका अपना

प्रवासिनी महाकुड़

और अधिकप्रवासिनी महाकुड़

    जो सपने देखती—

    वह सपना उसका अपना था,

    सोती तो वह नींद भी उसकी थी।

    चाँद के जिस कलंक के बारे में सोचती...

    वह कलंक भी उसका था।

    जिन तारों को अंधेरे में देख

    वह विभोर हो जाती—

    वे तारे भी उसके अपने थे;

    निर्जन रास्ते के पदचिह्न भी थे उसके...

    जिस प्यास के लिए वह पानी पीती,

    वह प्यास भी उसकी थी!

    जिन नीली सफेद तितलियों को

    दोनों हाथों से उड़ा दिया था—

    वे भी उसकी थी,

    जिस सुख के लिए भाग रही थी

    एक स्वर्णमृग के पीछे...

    वह सुख और ही वह स्वर्णमृग उसका था;

    जिस प्रकाश से वह दमकती—

    लगता कि वह प्रकाश भी

    उसका था।

    उसकी निःसंगता से कुछ

    उसकी उदासीनता से कुछ—

    कुछ उसकी अस्मिता से,

    उसके जिद्दी स्वभाव से...

    उसके आवेग, चाहत से कुछ,

    उसकी अस्वस्थता से कुछ और

    कुछ उसकी कविता से—

    उसके साथ था और हमेशा रहेगा...

    अन्यथा कवि से दूर हो जाएगा

    किसी फाँक से कविता का कारण।

    स्रोत :
    • पुस्तक : समकालीन ओड़िआ कविता (पृष्ठ 97)
    • रचनाकार : प्रवासिनी महाकुड़
    • प्रकाशन : भारतीय साहित्य केंद्र
    • संस्करण : 2013

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