कुछ औरतें
kuch aurten
कुछ औरतें अपने बुने को उधेड़ देती थीं
कुछ चूल्हे के बुझ जाने पर देर तक
नज़र गड़ाए रखती थीं अंगारों में,
आँखों में उगाती थीं नसों के लाल पेड़
कुछ कुएँ से पानी निकालते हुए बहुत
ज़्यादा भीतर तक डूबने देती थीं बाल्टी को
आने देती थीं ऊपर जो भी आना चाहता था
कुछ घरवालों से छिपकर उस गाय को
गुड़ दे आती थीं जो फिर गाभिन नहीं होती,
और कुछ देर शांत बैठती थीं
उस दशहरे प्रसाद होने वाले पठरू1 के साथ
कुछ रोज़ जाती थीं आत्मकामी या बेरुख़े पति की शैय्या पर,
और सोती थीं रात के संग, अगले पहर जागती हुई
कुछ बेटे को भी ओढ़नी बाँध खेलने देती थीं
और हाथ की सफ़ाई से टपका देती थीं
बेटी की थाली में घी
कुछ सुबह की चाय में देरी के लिए रोज़ उलाहने सुनतीं
और नहीं बतातीं किसी को कि सुबह नदी के लिए
जाते हुए वो आम के बग़ीचे में रुकी थीं,
न ये खुलासा करतीं कि क्या घटा दोनों के बीच
कुछ ने डरती सहेलियों के हाथ दबा
उनके इलज़ाम अपने सर ले लिए थे,
और उनके निशान भी
कुछ औरतें सालों पहले अन्य जाति के लड़के को देख मुस्कुराई थीं
और सालों बाद भी खुले दालान में सबके साथ बैठीं
उसे अंदर कहीं बंद रखती थीं सुरक्षित,
और इस जीत को सोचकर फिर से मुस्कुराती थीं
क्योंकि कुछ औरतों को आता था
आने के साथ जाना भी,
उनसे सब डरने लगे
घोषित करने लगे उनके पाँवों को उल्टा
जब कहा कुछ औरतों ने कि वो कई मर्तबे
झुलसी हैं जिस इंसान के साथ सोने पर
अब उसकी चिता पर तो वो साथ नहीं लेटेंगी
तो होम किया गया उन्हें
और उस भभूत से बहुत रोती बहुत औरतों ने
रगड़ डाली कई कड़ाहियाँ
जब तक कुछ औरतों की शक्ल
नहीं झलक आई लोहे पर
और बहुत औरतों ने अंदर कहीं बंद रख लिया सुरक्षित
उन चेहरों को
और इस जीत को सोचकर फिर मुस्कुराने लगीं।
- रचनाकार : अंकिता आनंद
- प्रकाशन : सदानीरा वेब पत्रिका
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.