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कीड़े जैसी दीवार

kiDe jaisi diwar

महेश आलोक

महेश आलोक

कीड़े जैसी दीवार

महेश आलोक

और अधिकमहेश आलोक

    वह एक ऊँची दीवार थी

    इतनी ऊँची कि ऊँचा होने का

    सबूत नहीं बचा था

    जितनी ऊँची दीवार थी

    उतनी ऊँची चुप्पी थी

    अगर चुप्पी भव्य और कुलीन थी

    तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए था

    ऊँचाई का समाजशास्त्र इसकी अनुमति नहीं देता

    वहीं एक कीड़ा था

    कीड़ा इस ऊँचाई में कहीं शामिल नहीं था

    और यह चमत्कृत करने वाला तथ्य नहीं है कि

    कीड़े के पास कल्पना थी

    कल्पना में उतनी आँच थी

    जितनी उसके बदन में गरमी थी

    वैसे कीड़े की कुल कल्पना कीड़े की लंबाई जितनी थी

    अगर उसकी बुद्धि को बटखरे की भाषा में बताना पड़े

    तो इत्मीनान से कहा जा सकता है कि

    जितना कीड़े का वज़न था

    उतनी उसकी बुद्धि थी

    चुप्पी कीड़े से कुछ खेल जैसा खेलती थी

    बस फलाँग जाती थी हँसकर

    उसकी निश्चित लंबाई और ग़ुस्से जितना आश्चर्य जैसे बुबका

    पोलवाट के खेल में अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन करता है

    वैसे कीड़े के पुरखों का अनुभव यह बताता है कि

    चुप्पी के लिए यह खेल

    प्रतिभा के प्रदर्शन जैसा नहीं था

    और कीड़ा पृथ्वी के सिर की अंतिम बाल जितनी जगह पर खड़ा था

    और परेशान था

    कई दिन बाद लोगों ने देखा

    कई दिन बाद वह कीड़ा जो अभी प्रौढ़ नहीं हुआ था वहाँ नहीं था

    यह एक ऐसी खबर थी जिस पर संपादकीय लिखना

    दुनिया के किसी भी अख़बार का मज़ाक़ में बदलना था

    इस घटना के तमाम दिन के तमाम दिन बाद एक विलक्षण घटना घटी

    दीवार चीख़ने लगी थी

    चूँकि चीख़ने का अंदाज़ प्रतिक्रिया की तरह था इसलिए

    कहा जा सकता है कि वह ठीक-ठीक मनोवैज्ञानिक दृष्टि से पागल नहीं हुई थी

    दैनिक व्यवहार में हम पागलपन का जिस तरह प्रयोग करते हैं

    उसके चीख़ने में पागलपन उसी तरह था

    तो वह चीख़ रही थी

    यह किसी ऐतिहासिक चीख़ का आधुनिक संस्करण था

    और कीड़ा इतिहास की स्मृतियों और अनुभवों

    और लपटों और मीनारों और खिलखिलाहटों को फलाँगता हुआ उड़ रहा था

    उस अंतिम ऊँचाई पर जहाँ से दीवार

    कीड़े जैसी दिख रही थी

    स्रोत :
    • रचनाकार : महेश आलोक
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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